लोकसभा चुनाव 1971: जब ‘इंदिरा हटाओ’ पर भारी पड़ा ‘गरीबी हटाओ’ और रच गया इतिहास

1967 के बाद साल 1971 में लोकसभा चुनाव हुए। आजाद भारत का यह पांचवा आम चुनाव होने के साथ-साथ देश का पहला मध्यावधि चुनाव भी था। कांग्रेस के अंदर मची उथल-पुथल इसी लोकसभा चुनाव से पहले खुलकर सामने आई। वहीं पाकिस्तान का बंटवारा भी इसी साल में देखने को मिला। इसी लोकसभा के वक्त में देश ने पहली बार आपातकाल लगते भी देखा, जिसके बाद कांग्रेस की स्थिति बिगड़ गई और जनता पार्टी सामने आई।

चुनाव में क्या रहा खास
1971 में कुल 520 लोकसभा सीटों पर चुनाव हुए, जिसमें से 352 पर कांग्रेस को जीत मिली थी। इसके बाद कांग्रेस ने लगातार पांचवी बार सरकार बनाई थी। इस चुनाव में कुल 15.15 करोड़ वोट डाले गए थे। कुल वोटरों में से 55.3 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था। इस जीत में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 43.68 था।

मध्यावधि चुनाव
कांग्रेस पार्टी के अंदर चले आ रहे मतभेद धीरे-धीरे बढ़ने लगे। फिर 1969 में मोरारजी देसाई को ‘अनुशासनहीनता’ के लिए निष्कासित कर दिया गया। इस घटना के बाद कांग्रेस दो भागों में विभाजित हो गई जिन्हें कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) कहा गया। इंदिरा ने दिसंबर 1970 तक सीपीआई (एम) के समर्थन से एक अल्पमत वाली सरकार को चलाया। वह आगे अल्पमत की सरकार नहीं चलाना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने चुनावों की अवधि से एक वर्ष पहले मध्यावधि लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी।

Source: Thedatastreet

‘गरीबी हटाओ’ नारे ने दिलाई इंदिरा को जीत
1971 लोकसभा चुनाव में इंदिरा ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था, जिसकी वजह से उन्हें भारी जीत मिली। इस चुनाव में कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादा सीटें भी हासिल की थीं। 1967 में कांग्रेस को 283 सीटों पर जीत मिली थी और इस लोकसभा चुनाव के बाद यह आंकड़ा बढ़कर 352 हो गया। इस चुनाव में कुल 54 पार्टियों ने अपना भाग्य आजमाया था। सीपीआई (एम) 29 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर रही। वहीं मोरारजी देसाई की कांग्रेस (ओ) को 16 सीट मिलीं और वह तीसरे नंबर की पार्टी बनी।

कोर्ट ने इंदिरा का निर्वाचन अवैध ठहराया, लगा आपातकाल
71 का चुनाव इंदिरा जीत चुकी थीं। पूर्वी पाकिस्तान को अलग कर बांग्लादेश बनाकर पड़ोसी देश के दो टुकड़े भी किए जा चुके थे लेकिन उस वक्त देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई थी। भारत-पाक युद्ध में आई भारी आर्थिक लागत, दुनिया में तेल की कीमतों में वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट ने देश की आर्थिक कठिनाइयों को बढ़ा दिया था।

1971 सिर्फ पांचवें लोकसभा चुनाव के लिए ही नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान युद्ध के लिए भी जाना जाता है। यह साल इंदिरा गांधी के लिए बेहद अहम था। इस वक्त तक कांग्रेस के दो फाड़ हो चुके थे। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सारे पुराने दोस्त उनकी बेटी इंदिरा के खिलाफ थे। इंदिरा को कांग्रेस के भीतर से ही चुनौती मिल रही थी। मोरारजी देसाई और कामराज फिर से मैदान में थे। 1967 के आम चुनाव में इंदिरा जहां सिंडिकेट का सूपड़ा साफ करके सत्ता पर काबिज हुई थी वहीं, फिर से कांग्रेस (ओ) के तौर पर उनके सामने पुराने दुश्मन खड़े थे। चुनावी मैदान में एक तरफ इंदिरा की नई कांग्रेस और दूसरी तरफ पुराने बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं की कांग्रेस (ओ) थी। दरअसल, 12 नवंबर 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा गया गया था। उनपर पार्टी ने अनुशासन के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। इस कदम से बौखलाईं इंदिरा गांधी ने नई पार्टी कांग्रेस (आर) बनाई। सिंडिकेट ने कांग्रेस (ओ) का नेतृत्व किया।

फिर से सत्ता पर काबिज होने में सफल हुई इंदिरा
इंदिरा गांधी अपने एक नारे ‘गरीबी हटाओ’ की बदौलत फिर से सत्ता में आ गईं। उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस ने लोकसभा की 545 सीटों में से 352 सीटें जीतीं। जबकि कांग्रेस (ओ) के खाते में सिर्फ 16 सीटें ही आई। भारतीय जनसंघ ने चुनाव में 22 सीटें जीतीं। सीपीआई ने चुनाव में 23 सीटें जीतीं। जबकि सीपीआईएम के खाते में 25 सीटें आईं। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 2 सीटें जीतीं जबकि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के खाते में 3 सीटें आईं। स्वतंत्र पार्टी के खाते में सिर्फ 8 सीटें आई। यह चुनाव 27 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में संपन्न हुआ। 518 निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस ने इससे पहले के लोकसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादा सीटें जीतीं। 1967 के चौथे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 283 सीटें मिली थीं। 1967 का लोकसभा चुनाव जहां भारतीय राजनीति में इंदिरा के ‘आगाज’ का गवाह था तो यह उनकी ‘शक्ति’ का।

क्यों खास था यह चुनाव?
यह पहला चुनाव था जब आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस पार्टी दो भागों में बंटी थी। सिंडिकेट से इंदिरा की खटपट पहले से ही चली आ रही थी। सिंडिकेट ने इंदिरा को पार्टी से ही बाहर कर दिया। पुराने बुजुर्ग नेताओं की कांग्रेस और इंदिरा की कांग्रेस चुनाव में आमने सामने थी। कांग्रेस (ओ) में ज्यादातर वही लोग थे जो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के किसी जमाने में करीबी हुआ करते थे और इंदिरा जिनके लिए बेटी समान थी। लेकिन यह इंदिरा गांधी ही थी जिन्होंने इससे पहले के चुनाव में सिंडिकेट को मुंह की खाने पर मजबूर कर दिया था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली पार्टी का चुनाव चिन्ह गाय का दूध पीता बछड़ा था। यह पहली बार था जब कांग्रेस गाय-बछड़े के चुनाव चिन्ह पर लोकसभा चुनाव लड़ रही थी।

मध्यावधि चुनाव करवाकर तीसरी बार प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा
सागरिका घोष अपनी किताब ‘इंदिरा- भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री’ में लिखती हैं कि अपने प्रमुख सचिव पीएन हक्सर की सलाह पर इंदिरा गांधी ने 1971 में मध्यावधि चुनाव करवा डाले। वह बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की जड़ों पर आघात और कांग्रेस बंटवारे की पृष्ठभूमि में लोकप्रिय नारे ‘गरीबी हटाओ’ के साथ चुनाव मैदान में उतरी थीं। जबकि विरोधियों का नारा था ‘इंदिरा हटाओ’। इस तरह 18 मार्च 1971 के दिन इंदिरा गांधी को तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। दिसंबर 1971 में निर्णायक युद्घ के बाद भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को ‘मुक्ति’ दिला दी। बांग्लादेश का जन्म हुआ। सागरिका घोष लिखती हैं, बांग्लादेश युद्ध के बाद तो इंदिरा गांधी की लोकप्रियता कुलांचें भरने लगीं।

1971 के आम चुनाव से कोई डेढ़ साल पहले एक ऐसी घटना हुई जिससे कांग्रेस के विभाजन पर आधिकारिक मुहर लग गई। यह घटना थी अगस्त 1969 में हुआ राष्ट्रपति चुनाव। इस चुनाव में इंदिरा गांधी बाबू जगजीवन राम को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाना चाहती थीं लेकिन लेकिन कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में उनकी नहीं चली।