फरवरी 1856 यानी आज से करीब 168 साल पहले। लंदन के मशहूर अखबार ‘द इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज‘ में स्केच की एक सीरीज छपी। बताया गया कि अंग्रेज सरकार ने भारत में संथाल हूल आंदोलन का दमन कैसे किया।
इतिहासकार इंद्र कुमार चौधरी अपनी किताब ‘फ्रॉम रीजन टू नेशन: द ट्राइबल रिवोल्ट्स इन झारखंड 1855-58′ में लिखते हैं, ‘ये स्केच रेवेन्यू सर्वेयर कैप्टन वॉल्टर स्टेनहोप शेरविल ने बनाए थे। साफ दिख रहा था कि अंग्रेज सरकार ने झारखंड के महान आदिवासी योद्धाओं को धोखे से पकड़ा और उन्हें किस तरह की यातनाएं देकर मार दिया गया।‘
दामिन-ए-कोह (मौजूदा झारखंड में) में आदिवासियों की अंग्रेजों के खिलाफ ये बगावत 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भी 2 साल पहले हुई थी। जिसका नेतृत्व सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव नाम के 4 भाइयों ने किया था। ‘झारखंड की कहानी’ सीरीज के पहले एपिसोड में झारखंड के ओरिजिन, आदिवासियों पर अत्याचार, बिरसा मुंडा और महाजनी प्रथा से जुड़े रोचक किस्से…
धनबाद के बिनोद बिहारी महतो कोयलांचल विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर डॉ. तनुजा कुमारी बताती हैं,
झारखंड का प्राचीन इतिहास ज्यादातर मौखिक है। पहले इसे नागखंड, नागद्वीप या नागदेश कहा जाता था। किवदंतियों पर आधारित झारखंड बनने की कई कहानियां हैं।
इतिहासकार एबी बनर्जी शास्त्री 1926 में प्रकाशित अपनी किताब ‘असुर इंडिया‘ में लिखते हैं- महाभारत के बाद नागों ने पांडवों के वंशज परीक्षित महाराज को मार डाला। परीक्षित के बेटे जन्मेजय ने बदला लेने के लिए नाग यज्ञ किया था। सब नाग मारे जा चुके थे, लेकिन एक नाग पुंडरीक बचकर भाग निकला, जिसने बनारस में जाकर ब्राह्मण का रूप रख लिया।
पुंडरीक बनारस में एक ब्राह्मण से शिक्षा लेने लगा, फिर उन्हीं की बेटी पार्वती से प्रेम विवाह कर लिया। दोनों जब जगन्नाथ पुरी की तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे, तब पिठौरिया में सुतियाम्बे नामक तालाब (मौजूदा रांची) के पास पार्वती ने एक बच्चे को जन्म दिया।
नाग होने के कारण पुंडरीक की दो जीभ थी। उसकी पत्नी ने इसका राज पूछा। पुंडरीक ने अपनी सच्चाई बताई और दोनों की मौत हो गई। वहां से गुजर रहे मुंडा राजा मदरा ने बच्चे के रोने की आवाज सुनी और उसे अपना बेटा बना लिया। इस बच्चे का नाम सुतिया पाहन रखा गया। आगे चलकर वो राजा बना और इस जगह का नाम सूतिया नागखंड रखा।
महाभारत में कर्क रेखा के निकट स्थित होने के कारण इस क्षेत्र को कर्क खंड कहा गया था। उन दिनों झारखंड राज्य मगध और अंग प्रदेश का हिस्सा था। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान नंद साम्राज्य ने इस क्षेत्र पर शासन किया था। मौर्य काल में यहां कई राज्यों का शासन था।
7वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग इस क्षेत्र से गुजरे थे। उन्होंने कर्णसुवर्ण राज्य का वर्णन किया, जिसके राजा शशांक थे। राज्य के उत्तर में मगध, पूर्व में चंपा, पश्चिम में महेंद्र और दक्षिण में ओडिशा था। यह क्षेत्र पाल साम्राज्य का भी हिस्सा था। मध्यकाल में भीम कर्ण नाम के नागवंशी राजा हुए, जिन्होंने सरगुजा के रक्सेल राजवंश को हराया।
अकबर के इतिहासकार अबुल फजल अपनी किताब ‘अकबरनामा’ में लिखते हैं कि छोटा नागपुर (झारखंड) की शंख नदी में हीरे मिलते हैं। ये एक अमीर राज्य है। यहां राजा मधु सिंह शासन कर रहे थे और अब यह मुगलों के अधीन है।
ये वो समय था जब अफगान सरदार भी अकबर के साथ वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे थे। ऐसा ही एक अफगानी सरदार जुनैद करारानी था। बंगाल उसके कब्जे में था। अकबर की विशाल सेना के आगे सरदार जुनैद करारानी कमजोर पड़ चुका था। छिपने के लिए उसने छोटा नागपुर को चुना था। उसे खोजते हुए अकबर के सैनिक जंगल के रास्ते छोटा नागपुर पहुंचे।
यहां के लोगों की संपन्नता देखकर मुगल सैनिक अचरज में पड़ गए। उन्होंने अकबर तक खबर पहुंचाई कि हमें एक नए प्रदेश का पता चला है, जहां की नदी हीरे उगलती है। अकबर ने अपने सेनापति शाहबाज खान कम्बोह को कहा कि फौरन छोटा नागपुर पर हमला करो।
हमले के बाद राजा मधु सिंह ने हार मान ली। समझौता हुआ कि मधु सिंह आजाद शासन करेंगे, लेकिन छोटा नागपुर को सालाना छह हजार रुपए और हीरे अकबर को देने होंगे।
अगली पीढ़ी के रूप में जहांगीर और राजा दुर्जनसाल छोटा नागपुर में शासन कर रहे थे। दुर्जन शाह ने रेवेन्यू और हीरे देना बंद कर दिया था। इससे जहांगीर बौखला गया। उसने बिहार के सूबेदार इब्राहिम खान से कहा कि हमला करो। दुर्जनसाल भी पिता की तरह हार गए, लेकिन कोई समझौता नहीं हुआ। 1615 ई. में दुर्जनसाल को बंदी बनाकर पटना लाया गया। फिर उन्हें ग्वालियर की जेल में रखा गया।
शंख नदी से हीरे निकाले जा रहे थे। राजकीय जौहरी उन्हें तराश रहे थे। एक बार नदी से बैंगनी हीरा निकला। जौहरियों ने उसकी कीमत 3 हजार रुपए लगाई, ये कहते हुए कि अगर सफेद रहता तो इसकी कीमत 20 हजार रुपए होती।
जहांगीर को पता लगा कि दुर्जनसाल को हीरों की जबरदस्त परख है। बैंगनी हीरों की शुद्धता को लेकर जहांगीर के मन में संशय में था। उसने दुर्जनसाल को बुलवाया और हीरों की परख करने को कहा। दुर्जनसाल ने पहचान कर ली। जहांगीर बहुत खुश हुआ। उसने दुर्जनसाल को आजाद कर उसका राज्य वापस कर दिया। उसे शाह की उपाधि भी दी।
दुर्जनसाल की मृत्यु 1639 या 1640 में हुई। अपनी मौत से पहले उसने राजधानी दोहसा में कई निर्माण कराए थे। उसने अपना महल नवरतन गढ़ भी बनवाया था, जिसमें कई रत्न मढ़े हुए थे। ये किला आज भी मौजूद है, लेकिन जर्जर हो चुका है।
संथाली भाषा में हूल का मतलब होता है विद्रोह या क्रांति। झारखंड के इतिहास में संथाल हूल सबसे बड़ी क्रांति मानी जाती है। इतिहासकार पीसी रॉय चौधरी अपनी किताब ‘1857 इन बिहार‘ में लिखते हैं,
1790 ईस्वी से संथाल जनजातियों के लोग संथाल परगना क्षेत्र में आकर बसने लगे थे। 1815 से 1830 के बीच ये बड़ी संख्या में आए और गोड्डा क्षेत्र में अनेक गांव बसाए। दामिन-ए-कोह यानी घने वनों वाली पहाड़ियों में इन्होंने 427 गांव बसाए थे।
अंग्रेजों ने 1793 में ‘द परमानेंट सेटलमेंट एक्ट‘ पेश किया। इसके तहत जमींदारों को अधिकार मिला कि जो जमीन उनके कब्जे में है, उस पर मालिकाना दावा कर सकते थे। सूदखोर महाजनों ने संथाल आदिवासियों को कर्ज देकर उनकी जमीनें हड़प ली थीं। लगभग सभी संथाल अपनी ही जमीन पर फसल तो बोते थे, लेकिन उसे जमींदार ले लेता था।
केके दत्त अपनी किताब ‘संथाल इनसरेक्शन‘ में लिखते हैं कि संथाल किसान बेगारी मजदूर हो गए थे। गांव के गांव गैर-संथालों को ठेके पर दे दिए गए थे। रेल की पटरी बिछाने आए अंग्रेज अफसर संथालों का जबरदस्त शोषण कर रहे थे। अंग्रेज सरकार जमींदारों का साथ दे रही थी।
ऐसे में मगनाडी के चुन्नू मांझी के चार बेटे सिद्धू मुर्मू, कान्हू मुर्मू, चांद मुर्मू और भैरव मुर्मू ने विद्रोह का बिगूल फूंका। इन्होंने लोगों को बताया कि ये जमीनें हमारी हैं और इन्हें वापस लेना है। हम किसी के गुलाम नहीं हैं। हम आजाद होकर रहेंगे।
संथाल आंदोलन की मशाल सबसे पहले सिद्धू मुर्मू और फिर उसके तीनों भाइयों ने जलाई थी। इन्होंने पहली बार अपने आप को आजाद घोषित किया था।
चारों भाइयों ने 30 जून 1855 को एक बड़ी विद्रोह सभा बुलाई। इसमें 6 से 7 हजार संथालों ने भाग लिया, जो वीरभूम बांकुड़ा, छोटानागपुर और हजारीबाग से आए थे। कुछ किताबों में 60 हजार लोगों के इकट्ठा होने की बात भी है।
इस सभा में अंग्रजों के खिलाफ विद्रोह का ऐलान किया गया। आदिवासियों ने अपने कानून बनाए और इन्हें लागू करना शुरू कर दिया। संथालों ने कई जमींदारों को मार डाला। एक सरकारी दरोगा की हत्या कर दी गई। अंग्रेज अफसरों के घरों को जला दिया गया। अंग्रेज सरकार आदिवासियों की हिम्मत देखकर दंग रह गई। तुरंत इस विद्रोह को कुचलने का प्लान बनाया गया। बंगाल से सैनिक भेजे गए।
15 जुलाई 1855 को 400 सैनिक कदमसीर पहुंचे। वहां चांद और भैरव को मार गिराया। गोलियां सिद्धू और कान्हू मुर्मू को भी लग चुकी थीं, लेकिन वे जिंदा थे। बाद में अंग्रेजों ने दोनों भाइयों को फांसी पर चढ़ा दिया।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 का माना जाता है। जन्मतिथि को लेकर इतिहासकारों में कुछ मतभेद भी हैं। डॉ. मनोज जोशी की किताब ‘लाइफ एंड मूवमेंट्स ऑफ बिरसा मुंडा‘ में लिखा है कि बिरसा पढ़ने में बहुत तेज थे। लोगों ने उनके पिता से उनका दाखिला ईसाई स्कूल में कराने के लिए कहा।
ईसाई स्कूल में एडमिशन लेने के लिए ईसाई धर्म अपनाना जरूरी था। बिरसा का धर्म परिवर्तन किया गया और उनका नाम बदकर डेविड कर दिया गया। बिरसा के मन में बचपन से ही साहूकारों के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह की भावना पनप रही थी। इसी के चलते उन्होंने जर्मन मिशन स्कूल छोड़ दिया। स्कूल के साथ ही ईसाई धर्म भी छोड़ दिया।
बात 1885 की है। झारखंड में अकाल पड़ा था। बिरसा ने तीन दिन से कुछ नहीं खाया था। इस दौरान गांव में एक गर्भवती महिला की मौत हो गई। जब उसे दफनाया गया तो उसके साथ गहने रख दिए गए। मान्यता ये थी कि उसे स्वर्ग में भूखा न मरना पड़े। रात को बिरसा श्मशान गए और कब्र खोदकर गहना ले आए। इसके बाद वापस कब्र में मिट्टी भर दी।
गहना बेचा और बाजार से चावल लेकर घर पहुंचे। मां ने पूछा तो बिरसा ने सब सच बता दिया। म ने थाली पलट दी। मां को डर था कि उस महिला की आत्मा अब और नाराज हो जाएगी। बिरसा को गांव के लोगों ने भी खूब दुत्कारा।
ये असली बिरसा मुंडा की तस्वीर मानी जाती है, जिसे गिरफ्तारी के वक्त अंग्रेजों ने लिया था।
शैलेंद्र महतो अपनी किताब ‘झारखंड में विद्रोह का इतिहास‘ में लिखते हैं कि 1893-94 में अंग्रेजी हुकूमत ने गांवों की सभी बंजर जमीन और जंगलों को सुरक्षित वन घोषित कर दिया था। आदिवासी अब भूखे मर रहे थे, क्योंकि जंगल जाने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता था।
बिरसा ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह करने की ठानी। 1 अक्टूबर 1894 को बिरसा ने एक हजार लोगों को इकट्ठा करके चक्रधरपुर में प्रदर्शन किया। वहां के थाने में एक ज्ञापन दिया। इसमें कहा गया था कि वन संबंधी अधिकारों को वापस किया जाए। जमीन पर टैक्स न लगाया जाए। इसके बाद बिरसा ने साहूकारों की जमीन पर कब्जा करना शुरू कर दिया।
केएस सिंह अपनी किताब ‘बिरसा मुंडा एंड हिज मूवमेंट‘ में एक भाषण का जिक्र करते हुए लिखते हैं- ‘बिरसा के भाषण से लोगों में जोश भर जाता था। वे उसकी बातें भगवान मानकर सुनते थे। एक बार बिरसा ने कहा- डरो मत, मेरा राज्य शुरू हो चुका है। सरकार राज खत्म हो गया है। उनकी बंदूकें लकड़ी की हो जाएंगी। जो भी मेरे साम्राज्य को क्षति पहुंचा रहे हैं, उन्हें तुम हटा दो।’
बिरसा जमींदारों की हत्याओं के साथ पुलिस थानों पर कब्जा कर आग लगा रहे थे। उन्हें गिरफ्तार करने के लिए कई बार पुलिस से हिंसक भिड़ंत हुई। उन पर 500 रुपए का इनाम रखा गया।
इसके बाद पुलिस वालों ने बिरसा के साथियों से संपर्क साधना करना शुरू किया। पता चला कि एक चौकीदार है, जो बिरसा के साथ रहता है। पुलिस वालों ने उसे लालच दे दिया। बताया जाता है कि उसे पांच रुपए चुपचाप से दिए गए थे।
जैसे ही बिरसा नहाने के लिए आए, उसने पुलिस को खबर कर दी। पुलिस ने बिरसा को गिरफ्तार कर लिया। हालांकि बिरसा की गिरफ्तारी को लेकर इतिहासकारों में भेद है। बिरसा को गिरफ्तार कर रांची जेल में बंद कर दिया गया। 9 जून 1900 को बिरसा की जेल में मौत हो गई। लोगों का कहना है कि बिरसा को जहर देकर मारा गया, लेकिन ब्रिटिश सरकार का कहना था कि बिरसा की मौत बीमारी से हुई थी।
आजादी के साढ़े चार महीने बाद ही आजाद भारत की पुलिस ने निहत्थे आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। राम मनोहर लोहिया ने इसे जलियांवाला बाग 2 कहा था। वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा अपनी किताब ‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज: शोषण, संघर्ष‘ में इस कांड में जिंदा बचे साधु चरण बिरुआ के हवाले से लिखते हैं कि केंद्र सरकार के दबाव में खरसावां स्टेट को ओडिशा में जबरदस्ती शामिल कर लिया गया था।
झारखंड के लोग चाहते थे हमारा इलाका हमारे पास ही रहने दिया जाए। 1 जनवरी 1948 से ये समझौता लागू होना था। इसी दिन झारखंड के नेता जयपाल सिंह मुंडा ने इसके विरोध में एक सभा बुलाई थी। इसी दिन हाट भी था।
विरोध सभा में भाग लेने के लिए जमशेदपुर, रांची, सिमडेगा, खूंटी, तमाड़, चाईंबासा सहित पूरे झारखंड से 50 हजार से ज्यादा आदिवासी खरसावां में जमा हुए थे। कई लोग दो-तीन दिन पहले ही खाने-पीने का सामान बांधकर पैदल निकल गए थे।
ओडिशा सरकार सतर्क थी। उसे पता था कि इतनी बड़ी संख्या में लाेग जमा हो रहे हैं। कोई बड़ी घटना होने वाली है। पूरे खरसावां के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। वो किसी भी सूरत में इस सभा को नहीं होने देना चाहती थी।
ये स्मारक उसी जगह पर बना है, जहां निहत्थे आदिवासियों पर गोलियां बरसाई गईं थीं।
किसी कारण से जयपाल सिंह मुंडा विरोध सभा में नहीं पहुंच सके। भीड़ किसी की सुनने को तैयार नहीं थी। फिर भी कुछ नेताओं ने लोगों को समझाया और राजा से मिलने गए। उन्हें ज्ञापन सौंपा कि खरसावां को झारखंड (बिहार) में ही रहने दिया जाए।
राजा ने मजबूरी बता दी कि वो कुछ नहीं कर सकते। इसके बाद सभी लोग हाट आ गए और मीटिंग करने लगे। नई उम्र के कुछ युवा शोर मचा रहे थे। इतने में अचानक पुलिस ने स्टेनगन से फायरिंग शुरू कर दी। 50 हजार आदिवासियों को भागने का मौका नहीं मिला। ज्यादातर लाेगों ने अपनी जान लेटकर बचाई थी।
गोलीकांड की सच्चाई बताने वाले साधु चरण बिरुआ ने भी लेटकर जान बचाई थी। उन्हें भी गोली लगी थी, लेकिन उनकी जान बच गई। जब फायरिंग बंद हुई तो चारों तरफ शव ही शव थे। पुलिस ने लाशों को छिपाने के लिए पास के कुओं में फेंकना शुरू किया। बताया जाता है कि पूरा कुआं लाश से भर गया था। इससे भी मन नहीं भरा तो पुलिस ने लाशों को जलाना शुरू कर दिया ताकि असली संख्या पता न चल सके। ओडिशा सरकार ने मरने वालों की संख्या 35 बताई थी, लेकिन हजार से ज्यादा आदिवासी मारे गए थे।
‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज : शोषण, संघर्ष‘ किताब में साधु चरण बिरुआ बताते हैं,
अचानक फायरिंग शुरू हो गई। मैं आम के पेड़ के पीछे छिपा हुआ था। जब तक मैं लेटा हुआ था बिल्कुल सेफ था। मेरे पैसों की थैली दूर गिरी हुई थी। जब मशीनगनों की आवाज बंद हुई तो मैं पैसों की थैली उठाने के लिए थोड़ा आगे बढ़ा। अचानक फिर से फायरिंग शुरू हो गई। एक गोली आई दाहिने हाथ की एक उंगली उड़ाते हुए निकल गई। दूसरी गोली बांह में लगी, लेकिन उंगली के दर्द के कारण उस गोली का दर्द पता ही नहीं चला।
साधु चरण बुजुर्ग हो गए थे। दुर्बलता के कारण शरीर में मांस बेहद कम हो गया था। एक दिन अचानक बांह में सूजन आ गई और दर्द शुरू हो गया। कुछ दिन बाद जहां गोली लगी थी, उसका कुछ हिस्सा बाहर आने लगा। ये देखकर वे घबरा गए। बेटे के साथ जमशेदपुर पहुंचे तो डॉक्टर ने ऑपरेशन कर गोली निकाली। 1 जनवरी 1948 को लगी गोली 13 अगस्त 2002 को निकाली गई। साधु चरण के शरीर में गोली 54 साल 12 दिन फंसी रही।
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2 अगस्त 2000 को लोकसभा में गहमा-गहमी थी। तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी बिहार पुनर्गठन विधेयक पेश करने वाले थे। इसके जरिए बिहार से अलग झारखंड राज्य बनाया जाना था। लालू प्रसाद यादव की RJD इसका विरोध कर रही थी।
झारखंड निर्माण को कांग्रेस की सहमति ने लालू यादव का खेल खराब कर दिया था। वो चाहकर भी कांग्रेस का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे, क्योंकि बिहार में कांग्रेस के समर्थन से ही राबड़ी सरकार चल रही थी। तीन दिन तक चली बहस में RJD सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा कि झारखंड का विकास नहीं होने वाला है, बल्कि वो कंगाल रहेगा, बिहार भी कंगाल रहेगा।
झारखंड को बने 24 साल हो चुके हैं। पिछले साल जारी CAG की रिपोर्ट के अनुसार 2021-22 में बिहार में प्रति व्यक्ति आय 54,383 रुपए है। वहीं झारखंड में प्रति व्यक्ति आय 88,535 है।
‘झारखंड की कहानी’ सीरीज के दूसरे एपिसोड में झारखंड आंदोलन और अलग राज्य बनने की पूरी कहानी…
जयपाल सिंह मुंडा, एक आदिवासी जो ऑक्सफोर्ड से पढ़े, ओलिंपिक जीतने वाली हॉकी टीम के कप्तान रहे और भारतीय सिविल सेवा में भी रहे। झारखंड आंदोलन में उनका योगदान बेहद महत्वपूर्ण है।
पत्रकार अश्विनी कुमार पंकज अपनी किताब ‘मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा‘ में लिखते हैं,
ये 1920 का दशक था जब छोटा नागपुर के पठार में आदिवासी समाज के अलग-अलग संगठन अपने तरीके से काम कर रहे थे। इनमें छोटा नागपुर उन्नति समाज सबसे पुराना संगठन था।
1928 में जब साइमन कमीशन रांची आया तो उन्नति समाज ने अलग प्रांत (राज्य) बनाने के लिए ज्ञापन दिया था, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने ये मांग ठुकरा दी थी। इसके बाद उन्नति समाज के नेता बंट गए और आंदोलन ठंडा पड़ गया।
30-31 मई 1938 को आदिवासियों के लिए काम करने वाले संगठनों का एकता सम्मेलन बुलाया गया। सबको मिलाकर एक नया संगठन ‘अखिल भारतीय आदिवासी महासभा‘ का ऐलान किया गया। इस बीच जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के बीच रांची पहुंच चुके थे। जयपाल सिंह को महासभा की कमान सौंपी गई। 20 जनवरी 1939 को रांची की रैली में जयपाल को सुनने एक लाख आदिवासी इकट्ठा हुए थे।
जयपाल सिंह मुंडा जिन्हें झारखंड आंदोलन का जनक कहा जाता है।
1 जनवरी 1950 को ‘अखिल भारतीय आदिवासी महासभा‘ का नाम बदलकर झारखंड पार्टी कर दिया गया। आजादी के बाद जब पहला चुनाव 1951 में हुआ तो झारखंड पार्टी ने 32 विधानसभा और 4 लोकसभा सीटें जीतीं। जयपाल खूंटी सीट से लोकसभा पहुंचे।
आजादी मिलते ही देशभर में सांस्कृतिक और भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मांग उठ रही थी। 22 दिसंबर 1953 को सैयद फजल अली की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग का ऐलान हुआ। आयोग के दो सदस्य 2 फरवरी 1955 को रांची पहुंचना था।
इससे ठीक पहले बिहार कांग्रेस के नेताओं ने जयपाल सिंह को बताया कि आपको झारखंड पर चर्चा करने के लिए नेहरूजी ने दिल्ली बुलाया है। जयपाल दिल्ली चले गए। आयोग के मेंबर रांची में थे।
जब झारखंड पार्टी के कुछ नेता आयोग के सदस्यों से मिलने पहुंचे तो उन्होंने कहा कि हम केवल जयपाल सिंह मुंडा से ही बात करेंगे, लेकिन वे तो दिल्ली में थे। नतीजतन आयोग के सदस्य वापस चले गए।
दरअसल, ये कांग्रेस नेताओं की चाल थी कि वे जयपाल आयोग के सदस्यों से नहीं मिल पाएं। झारखंड राज्य की मांग खारिज कर ये तर्क दिया गया कि ये सभी लोगों की नहीं केवल आदिवासियों की मांग है।
बाद में इस षड्यंत्र का खुलासा हुआ। दरअसल, जब जयपाल सिंह दिल्ली पहुंचे तो उन्हें बिहार CM श्रीकृष्ण सिंह, वरिष्ठ कांग्रेस नेता कृष्ण वल्लभ सहाय और विनोदानंद झा ने कहा कि नेहरू किसी भी वक्त झारखंड राज्य पर बात करने के लिए बुला सकते हैं।
ऐसा करते हुए दिल्ली में दो दिन हो गए थे। आखिर में अपने प्रयासों से जयपाल नेहरू से मिलने पहुंचे तो उन्होंने कहा मैंने आपको नहीं बुलाया। इसके बाद जयपाल समझ गए कि उनके साथ धोखा हुआ है। अलग राज्य का आंदोलन करने वाले नेताओं का दावा है कि अगर उस दिन आयोग के सदस्यों से जयपाल मिल लेते तो 1958 तक झारखंड अलग राज्य बन चुका होता।
आजादी के बाद 1951 में लोकसभा का चुनाव हुआ। छोटा नागपुर संथाल परगना सीट से जनता पार्टी के टिकट पर बाबू रामनारायण सिंह हजारीबाग से सांसद बने। उन्होंने संसद में पहली बार अलग राज्य के रूप में झारखंड की आवाज उठाई। ये वो दौर था जब कांग्रेस अलग झारखंड के खिलाफ थी, क्योंकि देश की राजनीति बिहार के नेताओं का वर्चस्व था। बाबू रामनारायण सिंह ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। इस बार वे झारखंड की आवाज उठा रहे थे।
16 अगस्त 1956 को राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट पेश की गई। बाबू रामनारायण सिंह ने इस विधेयक का विरोध किया और कहा कि हम अलग झारखंड राज्य चाहते हैं। अनुज कुमार सिन्हा अपनी किताब ‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज: शोषण, संघर्ष‘ में भाषण का जिक्र करते हैं।
बाबू रामनारायण सिंह ने संसद में कहा कि छोटा नागपुर का होने के नाते मुझे बोलने का हक है। ये मेरा कर्त्तव्य भी है। बिहार के लोग हर तरह से छोटा नागपुर का शोषण करना चाहते हैं। यही कारण है कि छोटा नागपुर को अलग राज्य बनाने का आंदोलन चल रहा है। एक बार झारखंड को अलग होने दीजिए वो आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा मिलेगा।
बिहार की इतनी बड़ी कैबिनेट है, लेकिन हमारे वहां से एक भी विधायक को मंत्री नहीं बनाया गया है। ये आचरण यही साबित करता है कि हमारे साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है।
पश्चिमी सिंहभूम के गोइलकेरा प्रखंड के ईचाहातू गांव में घने जंगलों के बीच एक पत्थर का स्मारक लगा है। इस पर लिखा है कि झारखंड राज्य के लिए दी गई पहली शहादत। झारखंड के जंगल बचाने और विद्रोह का दीप जलाने के लिए महेश्वर जामुदा ने गोली खाई थी।
वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा अपनी किताब ‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज: शोषण, संघर्ष‘ में लिखते हैं कि गोइलकेरा में साप्ताहिक हाट लगता था। सरकार ने यहां सामान बेचने पर टैक्स लगा दिया। टैक्स वसूली का ठेका एक व्यक्ति को दे दिया गया। 3 नवंबर 1978 को सब्जी बेचने आई एक आदिवासी महिला ने टैक्स देने से इनकार कर दिया।
इसके बाद SDO आरडी ओझा ने एक मीटिंग की और सभी से कहा कि आपको टैक्स देना ही होगा। यही सरकार का नियम है। मौजूद आदिवासियों ने कहा कि हम टैक्स नहीं देंगे। ये सुनते ही SDO आग बबूला हो गए। उन्होंने पास पड़ी एक लाठी उठाई और लोगों को पीटना शुरू कर दिया। जब पुलिस ने देखा कि साहब ने लाठी चार्ज की शुरुआत कर दी है तो सिपाहियों ने भी लाठी चलाना शुरू कर दिया।
लाठीचार्ज की खबर दूसरे लोगों को हो चुकी थी। उस समय वन विकास निगम का खूब विरोध हो रहा था। दरअसल वन विभाग साल की जगह सागवान का पौधा रोप रहे थे। दरअसल, साल के पेड़ को आदिवासी पवित्र मानते हैं। वे साल के पेड़ की पूजा करते हैं। उनके पूजनीय पेड़ को काटा जा रहा था और उनकी जगह सागवान के पौधों को लगाया जा रहा था।
इसके चलते ईचाहातू के मुंडा ने आदिवासियों की 6 नवंबर को बैठक बुलाई। बैठक में ये तय होना था कि किसी भी कीमत पर सागवान का पौधा नहीं रोपने देना है। बैठक संतरा जंगल के बीच में एक खेत में बुलाई गई थी। महेश्वर जामुद भी पास के कोल्हान के जुगदी गांव के थे। वे भी बैठक में भाग लेने पहुंचे थे। उनका झारखंड के आंदोलन से कोई लेना देना नहीं था, लेकिन अपने पवित्र जंगल और साल के पेड़ के लिए वे पहुंचे थे।
पुलिस को बैठक की जानकारी मिल चुकी थी। पुलिस ने बैठक स्थल पर मोर्चा संभाल लिया। आदिवासी नेताओं से कहा कि हमने धारा 144 लगा दी है आप बैठक नहीं कर सकते। अगर आने जिद की तो हम कर्फ्यू लगा देंगे।
थोड़ी देर में ऐलान हुआ कि बैठक नहीं होगी। सब अपना रास्ते पकड़ने लगे, इतने में अचानक पुलिस वालों ने फायरिंग शुरू कर दी। एक गोली महेश्वर जामुदा को लगी। उनकी वहीं मौत हो गई। बाद में आदिवासी समाज ने उन्हें झारखंड राज्य के लिए हुआ पहला शहीद माना और उनके नाम का स्मारक लगाया। इस घटना ने अलग झारखंड राज्य के आंदोलन काे गति दी।
झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी JMM वह पॉलिटिकल पार्टी है, जिसे अलग झारखंड के निर्माण के लिए बनाया गया था। झारखंड के निर्माण में इसका जबरदस्त योगदान है। इसके बनने के पीछे भी रोचक किस्से हैं।
विनोद बिहारी महतो, एके राय और शिबू सोरेन ने इसकी नींव रखी थी। इससे पहले तीनों नेता एक ही उद्देश्य के लिए अलग-अलग काम कर रहे थे। विनोद बिहारी महतो धनबाद जाने माने वकील और कुर्मी समाज के बड़े नेता थे। वे और एके राय कम्युनिटी पार्टी के नेता थे, लेकिन झारखंड की मांग के कारण उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी। शिबू सोरेन आदिवासी सुधार समिति चला रहे थे।
4 फरवरी 1972 को धनबाद में विनोद बाबू के घर पर तीनों नेता मिले। तीनों ने तय किया कि हम अपने संगठनों का विलय कर एक पॉलिटिकल पार्टी बनाएंगे, जो अलग झारखंड के लिए संघर्ष करेगी। कुछ महीने पहले ही बांग्लादेश आजाद हुआ था। उसे आजाद कराने में ‘मुक्ति वाहिनी’ ने लंबा संघर्ष किया था।
उधर वियतनाम में भी लोग मोर्चा ले रहे थे। दोनों जगहों के संघर्ष को जोड़कर नई पार्टी का नाम ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा‘ रखा गया। विनोद बिहारी महतो अध्यक्ष और शिबू सोरेन को महासचिव बनाया गया। अलग झारखंड की मांग के लिए पार्टी के स्थापना दिवस पर 4 फरवरी 1973 को धनबाद के गोल्फ मैदान पर स्थापना दिवस मनाया गया।
ये पहला मौका था जब हर तबके का व्यक्ति एक जाजम पर था और अपने लिए अलग राज्य मांग रहा था। विनोद राय के आने से कुर्मी, शिबू सोरेन के आने आदिवासी और एके राय के आने से मजदूर वर्ग एक साथ आया। एक लाख लोगों ने एक स्वर में कहा कि हमें अलग झारखंड चाहिए।
बात 1995 की है। जब बिहार विधानसभा में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने झारखंड के अलग किए जाने की बात पर कहा था कि झारखंड मेरी लाश पर बनेगा। वरिष्ठ पत्रकार सत्य भूषण सिंह बताते हैं कि झारखंड के आंदोलनकारियों ने लालू यादव के इस बयान को जरा भी गंभीरता से नहीं लिया था। वे जानते थे कि ये लालू का गेम है।
CM लालू यादव परेशान थे कि कैसे झारखंड के अलग होने की मांग को शांत किया जाए। लालू यादव पहले भी कई बार बोल चुके थे कि सारा सोना यानी खनिज संपदा तो उधर (झारखंड में) है, ये चला जाएगा तो हमारे पास क्या बचेगा? 1994 में CM लालू यादव ने झारखंड आंदोलन को शांत करने के लिए झारखंड विकास स्वायत्त परिषद का दांव खेल चुके थे।
लालू ने विधानसभा चुनाव से पहले ऐलान किया और कहा कि हम जीतने के बाद इसे लागू करेंगे। लालू चुनाव जीत भी गए थे। लालू ने इसका नाम झारखंड विकास स्वायत्त परिषद का नाम बदलकर झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद किया।
शिबू सोरेन को चुप कराने के उद्देश्य से उन्हें ही इस परिषद का अध्यक्ष बना दिया, लेकिन उनके पास फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं था। जब शिबू अध्यक्ष बने तो इसका JMM में विरोध होने लगा। इसके बाद शिबू सोरेन को परिषद के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा।
उधर जनता दल में टूट के कारण लालू की सरकार संकट में आ गई। लालू ने शिबू सोरेन से मदद मांगी। शिबू ने इस शर्त पर सपोर्ट किया कि वो अलग झारखंड राज्य बनाने में उनकी मदद करेंगे। चारा घोटाले के कारण लालू को इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन इससे पहले शिबू सोरेन ने बिहार विधानसभा में अलग झारखंड राज्य के निर्माण का प्रस्ताव कैबिनेट से पास करवा लिया था।
जुलाई 1997 में राबड़ी देवी CM बनीं। जब स्थितियां सामान्य हुईं तो लालू मुकर गए कि वे अलग झारखंड को सहमति नहीं दे सकते। ये बात अलग है कि सन् 2000 उन्हीं लालू यादव को बिहार विधानसभा में अलग झारखंड राज्य के बिल को सहमति देना पड़ी थी।
14-15 नवंबर 2000 की दरमियानी रात को अचानक राजभवन के वर्तमान गुलाब गार्डन में हलचल मचने लगी। क्या कर्मचारी और क्या अफसर तेजी से अंदर बाहर हो रहे थे। पहले से तैनात पुलिस वाले समझ नहीं पा रहे थे कि आधी रात को क्या हो रहा है।
वे भी जानते थे कि अब झारखंड राज्य बन चुका है। बस औपचारिकताएं बाकी हैं, लेकिन सबसे बड़ी औपचारिकता सरकार बनाने की थी। ये माना जा रहा था कि दिशोम गुरु शिबू सोरेन ही झारखंड के पहले CM होंगे।
श्याम किशोर चौबे अपनी किताब ‘झारखंड एक बैचेन राज्य का सुख‘ में लिखते हैं,
14 नवंबर की आधी रात को घड़ी की तीनों सुइयां मिलीं। कैलेंडर में तारीख बदलकर 15 नवंबर हो गई। इस दिन झारखंड की आजादी की लड़ाई के नायक ‘धरती आबा बिरसा मुंडा‘ की जयंती है। लोगों को नई सरकार का इंतजार है।
इससे पहले 31 अक्टूबर को केंद्रीय कैबिनेट सचिव पद से रिटायर हुए प्रभात कुमार को राष्ट्रपति ने राज्यपाल बनाकर भेजा था। उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट से ट्रांसफर होकर आए झारखंड हाईकोर्ट के कार्यकारी चीफ जस्टिस वीके गुप्ता ने पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। सामने केंद्रीय मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीज, यशवंत सिन्हा सहित कई वरिष्ठ नेता बैठे थे।
इधर प्रभात कुमार को राज्यपाल की शपथ दिलाई और उधर उन्होंने तुरंत मंच छोड़ा और राजभवन की ओर तेजी से निकले। वहां मौजूद पत्रकारों को आश्चर्य जरूर हुआ, लेकिन वे समझ गए है कि कुछ तो गड़बड़ है।
प्रभात कुमार वहां पहुंचे तो पता चला कि JMM, कांग्रेस, RJD आदि गठबंधन वाले नेताओं ने दावा किया है कि बहुमत उनके साथ है। इस कारण CM के तौर पर शिबू सोरेन को शपथ दिलाई जाए। जो दावा था उसके अनुसार JMM 12, कांग्रेस 11, RJD 9, CPI 3 और CPI(M) 1 सहित कुछ 36 विधायक थे। उनका दावा था कि नौ और विधायक भी हमारे साथ हैं। हमें मुख्यमंत्री बनाते हुए फ्लोर टेस्ट का मौका मिलना चाहिए।
शपथ ग्रहण कार्यक्रम में उपस्थित तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीस, यशवंत सिन्हा, नीतीश कुमार व अन्य। (फोटो: प्रसार भारती)
दूसरी ओर बाबूलाल मरांडी की ओर से दिए गए समर्थक विधायकों की सूची में भाजपा 32, समता पार्टी 5, JDU 3, UGDP के 2 और दो निर्दलियों को मिलाकर 44 विधायक थे। अपने राज्य के पहले CM को देखने के लिए आधी रात को भी सैंकडों लोग जमे और जगे हुए थे। पौन घंटे के भीतर राज्यपाल ने दोनों पक्षों के दावों को कसौटी पर तोला।
अपने विवेक से उन्होंने BJP के बाबूलाल मरांडी का दावा सही पाया। इसके बाद उन्होंने रात एक बजकर पांच मिनट पर बाबूलाल मरांडी को झारखंड के पहले CM के रूप में शपथ दिलाई। इधर शपथ ग्रहण हो रहा था बाहर NDA को मौका दिए जाने के विरोध में UPA समर्थक प्रदर्शन कर रहे थे। इस तरह झारखंड में पहली सरकार का उदय हुआ।
साभार- दैनिक भास्कर
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