8 जुलाई को पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पुण्यतिथि है। उनको याद करते हुए एक ऐसे राजनीतिक शख्सियत का चेहरा सामने आता हैं, जो बिना राजनीतिक नफा-नुकसान की परवाह किए, देशहित में दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए देश के सामने अपनी बेबाक राय रखने के लिए जाने जाते हैं। यारों के यार तो वे थे ही, अपने निजी सरोकारों के निभाने में भी उनका कोई जबाब नहीं था।
चंद्रशेखर जी की विपरीत परिस्थितियों में साहसिक निर्णय लेने की परख उस वक्त भी देखने में आई, जब प्रथम खाड़ी युद्ध शुरू हुआ और देश के सामने विदेशी मुद्रा का भारी संकट था। ऐसी विकट परिस्थिति आ गई थी कि जरूरी वस्तुओं के आयात के लिए भी विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म होने के कगार पर पहुंच गया था।
जीवनरक्षक दवाओं के आयात के लिए भी एक हफ्ते का विदेशी मुद्रा शेष था। पेट्रोलियम पदार्थों के आयात के लिए भी विदेशी मुद्रा की लगभग वैसी ही स्थिति थी। तब केंद्र में चंद्रशेखर जी की अल्पसंख्यक सरकार कांग्रेस के सहयोग से चल रही थी। देश के सामने रिजर्व बैंक का सोना गिरवी रखकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से ‘लोन’ लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
तत्कालीन आई एम एफ के चेयरमैन भारत पर कर्ज के एवज में मनमानी शर्तें थोपने पर आमादा थे। यह मानकर कि यह सरकार अल्पसंख्यक है और ज्यादा दिन चलेगी नहीं। आई एम एफ चेयरमैन ने बातचीत के सिलसिले में ही एक बार यहां तक हिदायत दे दिया कि, अगर हम कर्ज देने से मना कर दिए, तब आप क्या करेंगे? चन्द्रशेखर जी का सीधा जबाब था कि-
एक तो शर्तों के मुताबिक आप ऐसा कर नहीं सकते, दूसरा अगर आप ऐसा करते हैं, तो मैं इस मीटिंग से उठकर सीधे आकाशवाणी (तब टीबी का नेटवर्क इतना बड़ा नहीं था) जाऊंगा और देशवासियों से अपील करूंगा कि आईएमएफ से कर्ज मिलने की संभावनाएं खत्म हो चुकी है।
आप सभी देशवासियों से अपील करता हूं कि आप आने वाले कठिन समय का मुकाबला करने के लिए तैयार रहें। जब कभी बातचीत के दौरान चंद्रशेखर जी पूछा जाता था कि, देश का सोना गिरवी रखते हुए आपको यह नहीं लगता था कि इससे देश की बदनामी होगी? चंद्रशेखर जी का बेबाक जबाब होता था कि- आखिर अपने घर की बहू-बेटियों के लिए सोने के गहने-जेवरात किस लिए दान दिए जाते हैं? उसके पीछे असली मकसद यहीं होता है कि- किसी विपरीत परिस्थिति में वे अपना गहना-जेवर गिरवी रखकर अपना जीवन निर्वाह करें।
चंद्रशेखर जी का याराना
चंद्रशेखर जी की यारबाजी भी राजनीति में खासा चर्चा में रहीं। वे बदनामी की परवाह किए बिना इन रिश्तों को निभाते थे। पूरे देश और दुनिया में इसकी लंबी फेहरिस्त हैं। इनमें अंतरराष्ट्रीय हथियार व्यवसायी अदनान खशोगी से लेकर चर्चित स्व चंद्रास्वामी और उनके ही जिले के कोयलांचल में बाहुबली विधायक रहे सूरजदेव सिंह तक शामिल हैं। उनके साथ अपने रिश्तों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने में भी उन्हें कभी गुरेज नहीं था। यही नहीं उनके राजनीतिक जीवन में दो-तीन बयानों की वजह से भी उनका खासा नुकसान हुआ, पर उसकी वे परवाह नहीं करते थे।
एक ऐसा ही वाकया है- जब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के तहत सिखों के पवित्र धार्मिक स्थल अमृतसर के गुरुद्वारा साहिब में सेना भेजने का निर्णय लिया गया। चंद्रशेखर जी ने इंदिरा गांधी की सरकार के इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण कहा। उस वक्त पंजाब में जिस तरह की आतंकवादी घटनाएं बढ़ रही थीं, उसके मद्देनजर इंदिरा गांधी की इस सैन्य करवाई को एक तरह से व्यापक जन समर्थन प्राप्त था।
इस बयान की वजह से ही राजनीतिक रूप से जागरूक बलिया संसदीय क्षेत्र से चंद्रशेखर जी को चुनाव हारना पड़ा। पर उसका दुष्परिणाम यह भी हुआ कि ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ की घटना से आहत प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए इंदिरा गाँधी को अपने अंगरक्षक सिख सिपाहियों ने उन्हें गोलियों से भून दिया।
चंद्रशेखर जी के लिए कभी भी निजी रिश्तों के मामले में राजनीतिक विचारधारा उनके आड़े नहीं आई।भाजपा नेताओं में अटल बिहारी वाजपेयी से उनके निजी और प्रगाढ़ सम्बन्ध थे, तो शरद पवार और मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव से भी उनके वैसे ही सम्बन्ध रहे हैं। गाहेबगाहे चंद्रशेखर जी इनकी ऐसी मदद करते थे, जो कोई सोच भी नहीं सकता है।
अटल बिहारी वाजपेयी को भले वे अपना गुरुदेव मानते थे, पर नीतिगत मामलों उनकी जोरदार तरीके से आलोचना करने में भी कभी संकोच नहीं करते थे। इसकी कई मिशालें लोकसभा में हुई तब की हुई बहसों में भी देखा जा सकता है।
जब सोनिया गांधी मदद मांगने पहुंचीं
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से जयललिता के समर्थन वापसी के बाद सोनिया गांधी अपनी सरकार बनाने की गर्ज से मदद मांगने के लिए चंद्रशेखर जी के पास पहुंची। तब चंद्रशेखर जी विश्वासमत का सामना कर रही, वाजपेयी सरकार के खिलाफ ‘वोटिंग’ के दौरान तटस्थ रहने का मन बना चुके थे।
चंद्रशेखर जी वाजपेयी सरकार के उदारीकरण-निजीकरण और वैश्विकीकरण के नीतियों के मुखर आलोचक थे। इन नीतियों के विरोध करने के लिए चंद्रशेखर को संघ के स्वदेशी जागरण मंच पर जाने में भी कोई गुरेज नहीं था। पर वे अपनी इस समझ पर भी कायम रहें कि भाजपा कोई स्वतंत्र राजनीतिक दल नहीं, बल्कि संघ की एक राजनीतिक ईकाई मात्र है।
वाजपेयी सरकार आर्थिक नीतिगत मामलों पर उन नीतियों को बड़ी तत्परता से लागू कर रही थी, जिसे नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह ने आगे बढ़ाया था। चंद्रशेखर जी ने कांग्रेस-भाजपा की उन नीतियों का कभी समर्थन नहीं किया, इसलिए वे ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस को भी समर्थन नहीं कर सकते थे। पर उनके सामने दुविधा यह थी कि अपने दरवाजे आई विधवा और कांग्रेस की प्रमुख नेता सोनिया गांधी को समर्थन देने से मना कैसे करें?
दूसरे दिन वे सोनिया गांधी के घर गए और उन्हें बताया कि क्यों उनकी सरकार बनाने में वे मदद नहीं कर सकते है। चंद्रशेखर जी के इस मनाही से यह सबक सीखा जा सकता है कि अपने दरवाजे पर मदद मांगने के लिए आए अपने दुश्मन को भी कभी ‘ना’ नहीं चाहिए।
मौजूदा परिदृश्य में चंद्रशेखर जी
आज मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव भले रिश्तेदार हैं। पर इन दोनों प्रतिष्ठित परिवारों के बीच राजनीतिक वजहों से कभी वह घनिष्ठता नहीं आई जिसको निभाने के लिए चंद्रशेखर जी कुख्यात होने तक की जोखिम उठाने से परहेज नहीं करते थे। लालू जी बीमार हैं, चारा घोटाला मामले में अभी जमानत पर भी हैं। आप कल्पना करें कि चंद्रशेखर जी इस वक्त होते तो क्या करते?
पहला काम तो वे खुद कई बार जेल जाकर लालू जी से मिलते। दूसरा देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहते कि लालूजी को देश-विदेश जहां कहीं बेहतर स्वास्थ्य सुबिधा उपलब्ध हो, उसकी व्यवस्था करें। पर अभी तक मुलायम सिंह के पारिवारी जनों में से किसी की लालूजी से मिलने की सूचना नहीं है। हालांकि मुलायम सिंह इस वक्त खुद भी अस्वस्थ है। जब वे स्वस्थ थे, तब एक सांसद ने उन्हें सलाह दी थी कि लालू जी से इस वक्त जेल में जाकर आपको मिलना चाहिए। तब मुलायम सिंह ने लालू प्रसाद से मिलने से मना कर दिया था।
शायद मुलायम सिंह जी को इस बात का मलाल आज तक टीस रहा है कि संयुक्त मोर्चा की सरकार बनते समय लालू प्रसाद की वजह से ही वे प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे। चंद्रशेखर जी और आज के नेताओं में एक फर्क यह भी है कि, वे कभी राजनीतिक नफा-नुकसान की वजह से न रिश्ते बनाते थे-न तोड़ते थे।
इस मामले में वे कभी अपने परिवारीजनों की भी कोई दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते थे। अपने जीते जी अपने निकट परिवारजन को भी वे राजनीति में चुनाव लड़ने-लड़ाने के वे सख्त विरोधी थे। आज विपक्षी दल अक्सर इस बात का रोना रोते हैं कि सत्ता पक्ष उनकी बातें मानने के बजाय हमेशा दबा देता है। विपक्षी दलों को यह जरूर सोचना चाहिए कि चंद्रशेखर जी की राजनीतिक शख्सियत में आखिर कौन सी खूबियां थी कि वे इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेतृत्व के न चाहने पर राष्ट्रीय कार्यकारिणी का चुनाव जीतते रहे।
देश में आपातकाल लागू होने पर कांग्रेस में रहते हुए, इंदिरा गांधी के फैसले का विरोध करते रहे। आपातकाल के दौरान ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ का हवाला देकर जेल जाते हैं। इंदिरा गांधी को सलाह देते हैं कि, जयप्रकाश नारायण से उन्हें बातचीत करनी चाहिए। साथ ही यह हिदायत भी देते है कि देश की अहंकारी सत्ता जब भी संतो से टकराई है, उसका अहंकार नेस्तनाबूद हुआ है, वह सत्ता से बेदखल हुई है।