लोकसभा चुनाव 1980 : जनता ने फिर जताया इंदिरा पर विश्वास, सौंपी सत्ता की चाबी

सातवीं लोकसभा के लिए 1980 में हुए चुनाव में एक बार फिर इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई। जनता पार्टी के नेताओं के बीच की लड़ाई और देश में फैली राजनीतिक अस्थिरता ने कांग्रेस(आई) के पक्ष में काम किया, जिसने मतदाताओं को इंदिरा गांधी की मजबूत सरकार की याद दिला दी। कांग्रेस ने लोकसभा में 353 सीटें जीतीं और जनता पार्टी या बचे हुए गठबंधन को मात्र 31 सीटें मिलीं, जबकि जनता पार्टी सेक्यूलर को 41 सीटें मिली थीं। माकपा 37 सीटें जीतने में सफल रही। इसी दौर में इंदिरा गांधी की पार्टी का नाम बदलकर कांग्रेस (आई) रखा गया। उस वक्त कांग्रेस का चुनावी नारा था ‘काम करने वाली सरकार को चुनिए’। ये नारा इसलिए दिया गया क्योंकि जनता पार्टी की सरकार काम में कम और सत्ता संघर्ष में ज्यादा लिप्त थी। सिर्फ तीन साल के अंदर इमरजेंसी से खफा जनता ने कांग्रेस को दोबारा सत्ता की चाभी थमा दी। इंदिरा गांधी की जीत ने कांग्रेस की दो मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टियों का सूपड़ा साफ कर दिया। राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता के लिए 54 सीटें भी जनता दल और लोक दल को नसीब नहीं हुईं। इसी दौरान आठवीं लोकसभा से पहले भाजपा का गठन हुआ और इसके पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी बने।

गिर गई जनता सरकार

गठबंधन के शीर्ष नेताओं के बीच मतभेद और अन्य कारणों से सत्ता संभालने के 34 महीने बाद जनता गठबंधन सरकार गिर गई और 22 अगस्त, 1979 को सदन समय से पहले भंग कर दिया गया। इसके छह महीने बाद लोकसभा चुनाव हुए। 1977 में पहले जनता पार्टी और फिर चरण सिंह की सरकार गिरने के बाद 1980 में लोकसभा चुनाव हुए। 1977 के चुनाव में जनता ने देखा कि गठबंधन करके कांग्रेस को हराया जा सकता है। वहीं 1980 में हुए सातवें आम चुनाव ने दिखाया कि इंदिरा गांधी ने किस तरह आपातकाल की वजह से खोया जनसमर्थन वापस पाया। सातवीं लोकसभा का कार्यकाल प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या का भी गवाह बना। आपातकाल के बाद जनता का सीधा सामना कर रहीं इंदिरा की नई पार्टी कांग्रेस (आई) के लिए यह चुनाव आसान नहीं था। उनके सामने हर तरफ कठिन राजनीतिक चुनौती थी। जैसे बिहार में सत्येंद्र नरायण सिन्हा और कर्पूरी ठाकुर, कर्नाटक में रामाकृष्ण हेगड़े, महाराष्ट्र में शरद पवार, हरियाणा में देवी लाल और ओडिशा में बीजू पटनायक। सभी अपने क्षेत्र में अच्छी पकड़ रखते थे। हालांकि, जनता पार्टी के अंदर मचे घमासान और देश में हुई राजनीतिक अस्थिरता ने इंदिरा का साथ दिया और वह चौथी बार देश की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठीं। जनवरी 1980 में हुए इस चुनाव में कांग्रेस (आई) ने 353 सीटों पर जीत दर्ज की। वहीं कुछ दलों के अलग होने के बाद जो जनता पार्टी बची थी, वह 31 सीटों पर सिमट गई। कांग्रेस के समर्थन वापस लेने की वजह से पीएम पद से इस्तीफा देने वाले चरण सिंह की जनता पार्टी (सेक्युलर) ने 41 सीटें जीती थीं।

जरनैल सिंह भिंडरावाला का उदय

1977 में कांग्रेस को बाकी राज्यों की तरह पंजाब में भी बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद अकाली दल ने सरकार बनाई। इस बीच पंजाब में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने जरनैल सिंह भिंडरावाला का सहारा लिया। कहा जाता है कि भिंडरावाला को शुरुआत में सीधा ज्ञानी जैल सिंह और संजय गांधी का सपॉर्ट था। 1980 के चुनाव में भिंडरावाला ने कांग्रेस के लिए प्रचार भी किया था लेकिन इसी बीच पंजाब में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए मुहिम चलाने वाले एक अखबार के मालिक की हत्या कर दी गई। इसमें भिंडरावाला का नाम आया और उसे गिरफ्तार भी किया गया लेकिन कांग्रेस ने उसे रिहा करवा दिया। इससे भिंडरावाला और शक्तिशाली हो गया।

खालिस्तान की मांग, एशियाड खेलों का आयोजन

साल 1981, अगले साल नवंबर-दिसंबर में देश में एशियाड खेलों का आयोजन होना था। 30 साल बाद देश में इतना बड़ा आयोजन होने वाला था। कांग्रेस इसके लिए कमर कस रही थी। दूसरी तरफ भिंडरावाला ने धमकी दी कि पंजाब की विभिन्न मांगों (आनंदपुर साहब प्रस्ताव) को लेकर वह दिल्ली में प्रदर्शन करेगा। इसे देखते हुए पंजाब बॉर्डर की सुरक्षा-व्यवस्था चुस्त की गई। इसमें दिल्ली आनेवाले सिखों को संदेह की नजरों से देखा जाने लगा। पाकिस्तान से जंग के बाद बांग्लादेश निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले आर्मी अफसर जगजीत सिंह अरोड़ा को भी इस अपमान का सामना करना पड़ा। इस मुद्दे को भिंडरावाला ने भुनाया जिससे पंजाब का गुस्सा बढ़ता गया। इस बीच वहां खालिस्तान की मांग कर रहे लोगों और उग्रवाद के बढ़ने की खबरें आईं।

पंजाब को शांत करने के लिए इंदिरा ने ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति बनाया। इंदिरा को उम्मीद थी कि एक सिख का राष्ट्रपति बनना पंजाब की मौजूदा स्थिति में सुधार लगाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस बीच 1983 में पंजाब में एक बस हत्याकांड हुआ जिसमें हिंदुओं का लाइन से कत्ल किया गया। इसके बाद इंदिरा ने पंजाब की दरबारा सिंह सरकार को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगा दिया।

1980 चुनाव

4,629 थी उम्मीदवारों की संख्या (1977 से लगभग दोगुनी)
4 लाख के आंकड़े को पार कर गई थी मतदान केंद्रों की संख्या
35,62,05,329 थी मतदाताओं की संख्या
3-6 जनवरी के बीच हुए चुनाव

कांग्रेस की हुई हिंदी पट्टी में वापसी

कांग्रेस ने हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के अधिकांश हिस्सों, बिहार और मध्य प्रदेश में जीत के साथ हिंदी पट्टी में वापसी की। पार्टी महाराष्ट्र , गुजरात और दक्षिण भारत में भी हावी रही।

कांग्रेस ने पहली बार पंजे के साथ लड़ा चुनाव

यह पहला चुनाव था, जिसमें कांग्रेस ने अपने वर्तमान चुनाव चिह्न खुली हथेली (पंजे) के साथ चुनाव लड़ा था। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1978 में 153 सदस्यों में से 76 का समर्थन खोने के बाद कांग्रेस को फिर तोड़ते हुए नई पार्टी कांग्रेस (आई) बनाई और हाथ के पंजे को अपना नया चुनाव चिह्न बनाया।

आजादी के बाद से 1977 के आम चुनावों तक लगातार (1971 को छोड़कर) जनसंघ को सीटों के मामले में मुनाफा ही हुआ था. जो यह बताता था कि भारत में जनता के बीच उसकी राजनीति का आधार जम रहा है. लेकिन अचानक 1980 में जनसंघ और उसके नेताओं की हालत बहुत खराब हो गई. उसके मात्र 16 लोग संसद में पहुंचे और फूट के चलते पार्टी की हालत भी खराब हो गई. 1977 से 1980 के बीच ऐसा क्या हुआ कि एक वक्त में 93 लोगों को संसद में भेज देने के बाद जनसंघ 16 पर सिमट गई? हालांकि जनसंघ ने अपनी टिकट पर 1980 का चुनाव नहीं लड़ा था, वह जनता पार्टी का ही हिस्सा थी.
1980 के आम चुनाव की विशेषता जनता पार्टी की हार नहीं बल्कि जनसंघ का पूरी तरह से खात्मा हो जाना रही. विपक्ष की कुर्सियों पर 31 लोग (चंद्रशेखर धड़े में) थे. जिनमें से 16 लोग जनसंघ से थे. कहा जा सकता है कि मार्च 1977 के उस दौर के मुकाबले दयनीय हालात थे, जब जनता पार्टी के 302 में से 93 लोग जनसंघ से आते थे. 1967 में भी जनसंघ ने 35 सीटें जीती थीं और 1971 में इसे 22 सीटें मिली थीं लेकिन जनसंघ की आत्मविश्वास कभी इतना कम नहीं था जितना 1980 में था.

1980 में जनता पार्टी के भीतर की यह कटुता उभर भी आई थी. अपनी हार के कारणों का विश्लेषण करने के लिए जब जनवरी में मीटिंग हुई तो पार्टी के नेताओं के विचार बंटे हुए थे. गैर आरएसएस नेताओं सुरेंद्र मोहन और पूर्व युवा तुर्क नेता कृष्ण कांत जो चंडीगढ़ में अपनी जमानत भी नहीं बचा सके थे, वे सीधे जनसंघ और आरएसएस पर आरोप लगाने पर उतर आए थे. उन्होंने यह भी दावा किया कि चुनावों में आरएसएस ने उनके खिलाफ काम किया और उन्हें नुकसान पहुंचाया. कुछ ने यह भी आरोप लगाया कि पार्टी के चुने हुए उम्मीदवारों के खिलाफ आरएसएस ने अपने कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं को भी चुनाव में उतारा. हालांकि इस वाकये के बाद जनसंघ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि यह हार के बाद दी जाने वाली सफाई है. अब बचाव के रास्ते खोजना आसान है.