लोकसभा चुनाव 1991: राजीव गांधी की हत्या, मंडल-कमंडल की राजनीति

देश में दूसरी गैर कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व करते हुए वीपी सिंह को अभी नौ महीने ही हुए थे कि उनकी सरकार को समर्थन दे रही भारतीय जनता पार्टी ने अयोध्या में राममंदिर बनाने के लिए नए आंदोलन की रूपरेखा बनानी शुरू कर दी। सरकार में शामिल एक धड़ा भाजपा की इस मुहिम के खिलाफ था। 25 सितंबर, 1990 को आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से रथ यात्रा शुरू की थी। 23 अक्टूबर 1990 को जैसे ही उनका रथ बिहार के समस्तीपुर पहुंचा तो तब की लालू यादव की जनता दल सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। इससे गुस्साई भाजपा ने जनता दल की अगुवाई वाली केंद्र सरकार यानी वीपी सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इससे वीपी सिंह की सरकार गिर गई। उसके बाद नवंबर 1990 में कांग्रेस और वाम दलों के सहयोग से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने थे। चंद्रशेखर ने कुछ दिनों पहले ही जनता दल के 64 सांसदों के साथ अलग होकर नई समाजवादी जनता पार्टी बना ली थी। अभी चंद्रशेखर की सरकार को तीन महीने 24 दिन ही हुए थे कि सरकार को बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जासूसी करवाने का आरोप लगाकर सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इससे चंद्रशेखर सरकार अल्पमत में आ गई। चंद्रशेखर ने 6 मार्च, 1991 को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद देश में दसवीं लोकसभा के लिए चुनाव का बिगुल बज गया।

1991 में मई-जून के महीने में 10वीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहे थे। यह मध्यावधि चुनाव था। 1989 के दिसंबर में हुए चुनावों के बाद वीपी सिंह ने भाजपा की मदद से गैर कांग्रेसी राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनाई थी। जनता दल सरकार की अगुवाई कर रहा था। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने और ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने के बाद भाजपा ने देश भर में राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन छेड़ दिया था। भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने तब सोमनाथ से अयोध्या तक राम रथ यात्रा निकाली थी।

चंद्रशेखर के साथ ही जनदा दल से पाला बदलकर समाजवादी जनता पार्टी में आने वालों में हुकुमदेव नारायण यादव भी थे, जो 1989 में बिहार के सीतामढ़ी से सांसद चुने गए थे। चंद्रशेखर ने अपनी सरकार में कद्दावर यादव नेता को कपड़ा मंत्री बनाया था। 1991 में जब फिर से चुनाव हो रहे थे, तब हुकुमदेव नारायण यादव दोबारा सीतामढ़ी सीट से नामांकन का पर्चा दाखिल करने पहुंचे थे लेकिन उन्हें कलेक्टेरियट परिसर में ही जनता का भारी विरोध और गुस्से का सामना करना पड़ा था। लोग तब यादव से इतने खफा थे कि उन्हें नामांकन करने के लिए जिला समाहरणालय में घुसने तक नहीं दिया था और उनके कपड़े तक फाड़ दिए थे। भीड़ ने उनकी धोती खोल दी थी। उस वक्त भी यादव चंद्रशेखर की कार्यवाहक सरकार में कपड़ा मंत्री थे। उनके सुरक्षा कर्मी भी यह देखकर भौचक्का रह गए थे। यह भी कहा जाता है कि तब भीड़ नारे लगा रही थी- “जब जनता का जोश जागा, भारत का वस्त्र मंत्री निर्वस्त्र होकर भागा।”

दरअसल, आम जनता हुकुमदेव नारायण यादव से इसलिए खफा थी क्योंकि 1989 में जीतकर दिल्ली जाने के बाद उन्होंने अपने संसदीय इलाके को भुला दिया था। दो साल पहले जब वह जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे तो लोगों ने उन्हें भरपूर समर्थन दिया था। तब यादव को कुल 3 लाख 35 हजार 796 वोट मिले थे। उन्होंने कांग्रेस के कद्दावर नेता और तीन बार सांसद रहे नागेंद्र यादव को चुनाव हराया था। 1991 में हुकुमदेव नारायण समाजवादी जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने आए थे। भारी विरोध के बाद उन्हें सीतामढ़ी से अपनी दावेदारी छोड़नी पड़ गई थी। उन्होंने फिर दरभंगा से चुनाव लड़ा था, जहां उनकी जमानत जब्त हो गई थी, जबकि सीतामढ़ी से जनता दल के टिकट पर युवा उम्मीदवार नवल किशोर यादव ने रिकॉर्ड मतों से जीत दर्ज की थी। उन्हें करीब 65 फीसदी वोट मिले थे। राय ने कुल 4 लाख 25 हजार 186 वोट हासिल किए थे। उन्होंने कांग्रेस के रामबृक्ष चौधरी को करारी शिकस्त दी थी।

राजीव गांधी की हत्या
चुनाव प्रचार अपने चरम पर था। सभी राजनीतिक दलों के नेता रैलियों और सभाओं के माध्यम से समर्थन जुटाने के प्रयास में लगे थे। राजीव गांधी भी 21 मई को प्रचार के लिए तमिलनाडु पहुंच थे। श्रीपेरम्बदूर में उनकी सभा होनी थी। सभा से पहले एक महिला ने विस्फोट कर राजीव गांधी की हत्या कर दी। चुनाव प्रचार के दौर में राजनीतिक माहौल पूरी तरह से बदल गया। एक दौर का मतदान हो चुका था। दूसरे दौर के मतदान में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति का दौर चल पड़ा। सहानुभूति के उस माहौल के चलते कांग्रेस दूसरे दलों को पीछे छोड़ते हुए सत्ता के नजदीक पहुंचने में सफल हो गई।

नरसिम्हा राव का चेता भाग्य
चुनाव प्रचार के बीच में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस सकते में थी। सात साल के भीतर उसने अपना दूसरा बड़ा नेता खोया था। कांग्रेस बहुमत के करीब पहुंची, तो सवाल खड़ा हुआ प्रधानमंत्री का। नेता अनेक थे लेकिन चिंता इस बात की थी कि अल्पमत की सरकार को कौन पांच साल तक चला सकता है। तलाश शुरू हुई तो पीवी नरसिम्हा राव पर जाकर ठहरी। राव 1991 के चुनाव में उम्मीदवार नहीं बने थे। इसके बावजूद कांग्रेस ने राव को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना। राव ने बाद में आंध्रप्रदेश की नांदयाल सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा और पौने छह लाख मतों से जीते। राव नेहरू-गांधी परिवार के अलावा पहले ऐसे प्रधानमंत्री बने, जिन्होंने पूरे पांच साल तक प्रधानमंत्री पद संभाला।

पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सहजता और सादगी को आज भी वो भाजपाई याद करते हैं जो सन 1991 में विदिशा-रायसेन संसदीय क्षेत्र से उनके चुनाव लड़ने के साक्षी रहे हैं। उस दौर में प्रदेश में भाजपा की सरकार होने के बावजूद दिखावे से दूर बेहद सामान्य व्यवस्था के बीच रहने और चुनावी सभा करने के आदी अटलजी ने कभी कमियों पर उफ् तक नहीं किया। कभी बिना कूलर के सोना पड़ा, तो कभी खाना बासी हो जाने पर चुपचाप खा लिया, लेकिन किसी पर नाराज नहीं हुए। अटलजी के चुनाव में वे सबसे ज्यादा उस समय हंसते थे, जब भाषण देते समय शिवराज कहते थे कि अटलजी के व्यक्तित्व से किसी की तुलना संभव ही नहीं है। शिवराज जब अटलजी की तरफ इशारा करके बोले कि कहां मूंछ का बाल और प्रतिद्वंद्वी दल की तरफ इशारा कर बोले कहां पूंछ का बाल… तो अटलजी जोर से हंसे और बोले क्या बोलता है भाई।

कूलर-लाइट का एक ही स्विच
गंजबासौदा में एक सभा के बाद रात्रि विश्राम का किस्सा बताते हुए डॉ. शेजवार ने कहा कि एक सामान्य मकान के दो कमरों में हमारे रुकने की व्यवस्था थी। एक कमरे में अटलजी रुके थे। सुबह जब हमने पूछा नींद कैसी आई आपको…तो वे जोर से हंसते हुए बोले कूलर और लाइट का स्विच एक ही था। कुछ देर कूलर में, तो कुछ देर बिना कूलर के सोया।

बहुत अच्छा बोलते हैं हमारे प्रत्याशी, भाजपा को वोट दें
एक बार अटलजी विदिशा के बाद दूसरे संसदीय क्षेत्र में चुनावी सभा लेने गए। रात के 10 बजने वाले थे। प्रत्याशी ने उनसे पहले 5 मिनट बोलने की अनुमति मांगी और वे 50 मिनट तक लगातार बोल गए। अटलजी के पास बोलने समय नहीं बचा। फिर उन्होंने माइक थामा और हंसते हुए कहा कि हमारे प्रत्याशी बहुत अच्छा बोलते हैं। आप सब भाजपा को वोट दें और इन्हें जरूर जिताएं। बाद में अटलजी बहुत हंसे और बोले मेरे लिए बोलने कुछ छोड़ा ही नहीं था।

मंडल कमिशन और राम मंदिर मामला
1991 के चुनाव ऐसे माहौल में हुए जब मंडल कमिशन का मुद्दा और राम मंदिर मामला देश की राजनीति की दिशा तय कर रहे थे। इस समय ध्रुवीकरण की राजनीति शुरू हो गई थी। वीपी सिंह की सरकार में मंडल कमिशन की सिफारिशें लागू की गईं और ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिया गया। इसके बाद देशभर में सवर्णों का आंदोलन शुरू हो गया।

वहीं अयोध्या में बाबरी मस्जिद भी विवाद का विषय बन गई। बड़ी संख्या में सवर्ण भी इस आंदोलन से जुड़ गए। मंदिर मुद्दे को लेकर देश के कई हिस्सों में हिंसा भी हुई। भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव में मंदिर मुद्दे को प्रमुखता दी। राज्यों में बीजेपी को सफलता मिलनी शुरू हो गई। राम मंदिर मुद्दे पर सवार बीजेपी की सरकार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में बन गई। इस माहौल में नैशनल फ्रंट को किनारे करते हुए कांग्रेस ने लेफ्ट पार्टियों के साथ सरकार बनाने का फैसला किया।

चुनाव परिणाम
आम चुनाव में कांग्रेस को 244 सीटें मिलीं। 120 सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी दूसरे नंबर पर रही। उसे मंदिर मुद्दे का फायदा मिला था। जनता दल को 63 सीटें और CPM को 36 सीटें हासिल हुईं। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 35.66 था और बीजेपी को 20.04 प्रतिशत वोट मिले।

राम मंदिर मामला और बीजेपी की बढ़त
1991 में मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। फिर 30 नवंबर को आडवाणी और जोशी ने अयोध्या जाने का ऐलान कर दिया। राम मंदिर को लेकर कारसेवकों का गुस्सा बढ़ रहा था और 6 दिसंबर को अयोध्या में बड़ी संख्या में लोग जमा हो गए। आखिरकार बेकाबू भीड़ बाबरी मस्जिद के गुंबद पर चढ़ गई और इसे ध्वस्त कर दिया। इसके कुछ घंटे बाद ही यूपी के तत्कालीन सीएम कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया। यहां से राजनीति में एक बड़ा मोड़ आ गया। कहा जाता है कि इस घटना को रोका जा सकता था लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए ऐसा नहीं किया गया।

ऐसे हुई थी शुरुआत
21 दिसंबर, 1949 में विवादित मस्जिद में रामलला की मूर्ति प्रकट होने का दावा किया गया था। इसके बाद फैजाबाद थाने में 23 दिसंबर को एफआईआर दर्ज की गई थी। 1950 में यह मामला जिला कोर्ट में चला गया। बाद में रामलला विराजमान को इस मामले में वादी बना दिया गया। फिर मुस्लिम पैरोकार भी कोर्ट गए और उन्होंने मूर्ति प्रकट होने की बात को खारिज किया। कोर्ट में चार मामले दायर किए गए। मामला कोर्ट में था तभी फैजाबाद जिला जज के आदेश पर मंदिर में लगा ताला खुलवा दिया गया। केंद्र की राजीव सरकार ने इस काम का प्रसारण दूरदर्शन पर भी करवाया था।

फिर तारीख पर तारीख, जमीन को समतल करने की बात
उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार ने बड़ा फैसला करते हुए विवादित ढांचे और पास की 2.77 एकड़ जमीन को अधिग्रहित करने का फैसला किया। इसके बाद अधिग्रहित जमीन पर पक्का निर्माण करने पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रोक लगा दी। नरसिम्हा राव और उनकी सरकार मंदिर मामले की वजह से पसोपेश में ही पड़ी रही। इलाहाबाद कोर्ट लगातार फैसले की तारीख को आगे बढ़ाता रहा। इसको लेकर ही लखनऊ में 5 दिसंबर 1992 को अटल बिहारी बाजपेयी और आडवाणी ने बड़ी रैली की थी और यहीं उन्होंने जमीन को समतल करने की बात कही थी। फिर अगले ही दिन कारसेवकों ने विवादित ढांचे को गिरा दिया गया। मुख्यमंत्री के इस्तीफे के बाद उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था और बिगड़ गई जिसके बाद वहां राष्ट्रपति शासन लगाया गया। विवादित ढांचा टूटने के बाद 2 महीने तक देश में दंगे होते रहे और करीब 2000 लोग मारे गए। सबसे ज्यादा हिंसा मुंबई में हुई। इसमें 1993 में हुए मुंबई सीरियल ब्लास्ट की घटना भी शामिल है।