लोकसभा चुनाव 1998: जब किसी भी पार्टी को नहीं मिला बहुमत, 13 महीने में ही गिर गई वाजपेयी सरकार

साल 1998 देश में 12वें लोकसभा चुनाव का गवाह बना। इससे पहले, 1996 के आम चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन तक प्रधानमंत्री रहे और बहुमत साबित नहीं कर पाने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद, संयुक्त मोर्चा गठबंधन सरकार का गठन हुआ लेकिन, यह सरकार भी 18 महीने से ज्यादा नहीं चली। बाद में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनी और इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। 1998 में देश मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ। 16 फरवरी से 28 फरवरी 1998 के बीच तीन चरणों में चुनाव संपन्न हुए और किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला।

13 महीने ही चली अटल सरकार, एआईएडीएमके ने वापस लिया समर्थन
इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें मिली। जबकि कांग्रेस के खाते में 141 सीटें आईं। सीपीएम ने 32 सीटें जीती और सीपाआई के खाते में सिर्फ 9 सीटें आई। समता पार्टी को 12, जनता दल को 6 और बसपा को 5 लोकसभा सीटें मिली। क्षेत्रीय पार्टियों ने 150 लोकसभा सीटें जीतीं। भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी, एआईएडीएमके और बिजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहार वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। लेकिन इस बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीने में ही गिर गई। एआईएडीएमके ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और देश फिर से एक बार मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ।

1998 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने 17 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों में सीटें जीतीं। जबकि भाजपा ने 17 राज्यों और 4 केंद्र शासित क्षेत्रों से सीटें जीतीं। 1996 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 26 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से घटकर 20 पर रह गई। कांग्रेस के मत फीसदी में भी गिरावट आया। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने छोटे से कार्यकाल में परमाणु परीक्षण का एलान किया। देश में पहली बार राजस्थान के पोखरन से परमाणु परीक्षण हुआ।

1998 लोकसभा चुनाव के नतीजे
इस चुनाव में कांग्रेस ने 477 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे जिनमें से 141 जीते। भाजपा ने 388 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे थे लेकिन जीत 182 की ही हुई। हालांकि, इस चुनाव में भाजपा को 1996 के लोकसभा चुनाव से ज्यादा सीटें मिली। चुनाव में समता पार्टी ने 12 सीटें और भाकपा 9 सीटें जीतीं। जबकि माकपा के खाते में 32 सीटें आई। इस चुनाव में माकपा ने 71 प्रत्याशी उतारे थे। चुनाव में 61.97 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। चुनाव में भाजपा को यूपी में 57 सीटें मिली। बसपा के खाते में 4 सीटें आई।

डीएमके पार्टी को लेकर कांग्रेस और इंद्र कुमार गुजराल में मचे घमासान की वजह से 1996 के दो साल बाद 1998 में ही फिर लोकसभा चुनाव की नौबत आ गई। 12वें आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और दूसरी तरफ सोनिया गांधी भी राजनीति में कदम रख चुकी थीं। इस चुनाव में एनडीए गठबंधन को कुल 252 सीटें मिली थीं। इसमें से 182 बीजेपी की थीं। वहीं कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 165 सीटों पर संतोष करना पड़ा।

देश में गठबंधन की राजनीति का दौर अपने शैशवकाल में ही था, लिहाजा राजनीतिक अस्थिरता का दौर भी जारी था। भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन यानी एनडीए की सरकार 1998 में महज तेरह महीने चलने के बाद गिर चुकी थी, लेकिन राजनीतिक तौर पर उसका अछूतोद्धार हो चुका था। उसके सहयोगी दलों की संख्या में इजाफा हो गया था। उसकी सरकार गिरने के परिणामस्वरूप 1999 के सितंबर-अक्टूबर में देश को फिर आम चुनाव से रूबरू होना पडा। यह पांचवां मौका था जब लोकसभा के लिए मध्यावधि चुनाव हुआ। इस चुनाव में भी त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनी। किसी भी दल या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हो सका। लेकिन एक वोट से सरकार गिरने की सहानुभूति और करगिल की लड़ाई की पृष्ठभूमि में हुए इस चुनाव में एक बार फिर भाजपा सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी। उसके सहयोगी दलों की ताकत में भी इजाफा हुआ, लेकिन इसके बावजूद उसका गठबंधन बहुमत का आंकड़ा नहीं छू सका।

कांग्रेस को वोट ज्यादा मिले लेकिन सीटें पहले से भी कम मिलीं : इस चुनाव का एक उल्लेखनीय और आश्चर्यजनक पहलू यह रहा कि कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले सीटे भले ही बहुत कम मिलीं मगर उसे प्राप्त वोटों का प्रतिशत, भाजपा को प्राप्त वोटों के प्रतिशत से ज्यादा रहा। भाजपा को कुल 8,65,62,209 वोट मिले और पिछले चुनाव के मुकाबले उसे प्राप्त वोटों में 1.84 फीसद की गिरावट आई। जबकि कांग्रेस को प्राप्त वोटों में पिछले चुनाव के मुकाबले 2.48 फीसद का इजाफा हुआ। उसे कुल 10,31,20,330 वोट प्राप्त हुए। यानी भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को 4.65 फीसद वोट अधिक मिले, लेकिन प्राप्त सीटों के लिहाज से वह भाजपा से काफी पीछे रह गई।

भाजपा यद्यपि सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले उसे कोई अतिरिक्त फायदा नहीं हुआ। उसकी सीटें 182 ही बनी रहीं। 1998 के चुनाव में भी उसे इतनी ही सीटें मिली थीं। उसे सबसे करारा झटका उत्तर प्रदेश में लगा, जहां पिछली बार मिलीं 59 सीटों के मुकाबले इस चुनाव में उसकी सीटें घटकर आधी रह गई। यानी उसे उत्तर प्रदेश में महज 29 सीटें हासिल हुईं।

उसके इस नुकसान की भरपाई महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान से हुई। वह अपने साथ कुछ और छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों को जोड़ने में कामयाब रही। उसके गठबंधन में छोटे-बड़े मिलाकर कुल 26 दल हो गए। इन सभी दलों ने एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता चुना। वाजपेयी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया, जिसे राष्ट्रपति ने स्वीकार किया। वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार का गठन हुआ। पिछली बार की तरह इस बार भी सरकार बनाने और चलाने के लिए भाजपा को राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक कानून जैसे तीन पुराने और प्रिय मुद्दों को दरकिनार करना पडा, जिसकी वजह से उनकी सरकार ने बगैर किसी बाधा के अपना कार्यकाल पूरा किया।

दूसरी तरफ कांग्रेस का नक्शा पूरी तरह बदल चुका था। चुनाव के पहले ही सोनिया गांधी पार्टी की कमान संभाल चुकी थीं। सीताराम केसरी को बेआबरू कर अपदस्थ किया जा चुका था। लेकिन शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर बगावत करते हुए अपनी नई पार्टी (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी) बना ली थी। इसी स्थिति में कांग्रेस चुनाव मैदान में उतरी। उसके पास ऐसा कोई बडा मुद्दा नहीं था जिसके आधार वह भाजपा और उसके गठबंधन को चुनौती दे सकती।

पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथों में आने का भी कोई असर नहीं हुआ। कांग्रेस देश के चुनावी इतिहास मे सबसे कम सीटें जीत पाई। उसकी सीटें 141 से घटकर मात्र 114 रह गई। कई राज्यों में उसका सफाया हो गया। राज्यों में तो उसकी सरकारें कायम रहीं, लेकिन केंद्र में वह अप्रासंगिक होती दिखने लगी।

जो प्रमुख दिग्गज लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे : 1999 के चुनाव में जो प्रमुख नेता लोकसभा में पहुंचे थे उनमें भाजपा से अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से और लालकृष्ण आडवाणी गांधीनगर से निर्वाचित हुए थे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी अमेठी से जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं। समाजवादी जनता पार्टी से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे थे। इनके अलावा भाजपा से जसवंत सिंह, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, सुषमा स्वराज, जगमोहन, सुंदरलाल पटवा, शांता कुमार, राम नाईक, वसुंधरा राजे, उमा भारती, सुमित्रा महाजन, रमन सिंह, शिवराज सिंह चौहान आदि भी लोकसभा में पहुंचे।

कांग्रेस से लोकसभा पहुंचने वाले दिग्गजों में जाफर शरीफ, जितेंद्र प्रसाद, सुनील दत्त, नारायणदत्त तिवारी, प्रियरंजन दासमुंशी, पीएम सईद, बूटा सिंह, कमलनाथ, माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट आदि प्रमुख रहे। जनता दल (यू) से जॉर्ज फर्नांडीस, शरद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सोमनाथ चटर्जी, वासुदेव आचार्य, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इंद्रजीत गुप्त, गीता मुखर्जी, समाजवादी पार्टी से मुलायम सिंह यादव, राज बब्बर, अखिलेश यादव, राष्ट्रीय लोकदल से चौधरी अजीत सिंह, बहुजन समाज पार्टी से मायावती, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से शरद पवार, पीए संगमा शिवसेना से मनोहर जोशी, सुरेश प्रभु, तृणमूल कांग्रेस से ममता बनर्जी, झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन और निर्दलीय मेनका गांधी भी चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचने वालों में प्रमुख थे।

जनता दल (एस) से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौडा यद्यपि चुनाव हार गए थे, लेकिन बाद में उपचुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचने में कामयाब हो गए थे। इसी लोकसभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया भी लोकसभा में पहुंचे लेकिन उपचुनाव के जरिए। यह उपचुनाव उनके पिता माधराव सिंधिया की 2001 में एक विमान दुर्घटना में असामयिक मौत हो जाने की वजह से हुआ था।

फूलनदेवी दूसरी बार लोकसभा में पहुंचीं : चुनाव जीतने वालों में एक नाम फूलनदेवी का भी था। अपने गांव में तथाकथित उच्च जाति के बाहुबलियों से बुरी तरह अपमानित और प्रताड़ित होने के बाद बागी बनकर लंबे समय तक चंबल के बीहड़ों में आतंक और प्रतिशोध का पर्याय रहीं मल्लाह जाति की फूलनदेवी को समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर संसदीय क्षेत्र से अपनी उम्मीदवार बनाया था। इस सीट पर यह फूलनदेवी दूसरी जीत थी। इससे पहले वे 1996 में भी समाजवादी पार्टी के टिकट पर ही मिर्जापुर से जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं।

उनका चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचना भारत के संसदीय इतिहास की एक अनोखी घटना थी। फूलनदेवी को लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाने को लेकर मीडिया और समाज के संभ्रांत कहे जाने वाले तबके ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव पर काफी छींटाकशी की थी और उनके चुनाव जीतने पर भी खूब नाक-भौं सिकोड़ी थी, लेकिन हकीकत तो यही है कि फूलनदेवी के देश की सबसे बडी लोकतांत्रिक महफिल यानी लोकसभा में पहुंचने से हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती में निखार ही आया था।

जो दिग्गज नहीं पहुंच सके लोकसभा में : इस चुनाव में हारने वालों में प्रमुख थे कांग्रेस के डॉ. मनमोहन सिंह, डॉ. कर्ण सिंह, आरके धवन, हरीश रावत, बलराम जाखड़, मोतीलाल वोरा, जगन्नाथ पहाड़िया, एआर अंतुले, अजित जोगी, राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गुरुदास दासगुप्त, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मोहम्मद सलीम, बहुजन समाज पार्टी के आरिफ मोहम्मद खान, भाजपा के अनंत कुमार, मुख्तार अब्बास नकवी, अकाली दल के सुरजीत सिंह बरनाला, जनता दल (एस) से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, प्रो. मधु दंडवते, जनता दल (यू) के शिवानंद तिवारी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के तारिक अनवर।

लोकसभा अध्यक्ष का पद फिर सहयोगी दल को मिला : पिछली लोकसभा की तरह इस लोकसभा का अध्यक्ष पद भी भाजपा को अपने सहयोगी दल को देना पड़ा। बारहवीं लोकसभा के अध्यक्ष तेलुगू देशम पार्टी के जीएमसी बालयोगी थे, जबकि तेरहवीं लोकसभा में यह पद शिवसेना के मनोहर जोशी को हासिल हुआ। बालयोगी का चुनाव भी सर्वसम्मति से हुआ था और जोशी भी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। दोनों का ही कार्यकाल अपने पूर्ववर्ती लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा की तरह कमोबेश निर्विवाद ही रहा। संगमा भी सत्तारूढ़ पार्टी के नहीं बल्कि सरकार को समर्थन दे रही कांग्रेस पार्टी की ओर से लोकसभा अध्यक्ष बने थे। इनमें से किसी पर भी पक्षपात या विपक्ष के साथ भेदभाव करने का आरोप नहीं लगा।

क्षत्रपों का दबदबा बढ़ा : 1996 से लेकर 1999 तक के चुनावों में सिर्फ गठबंधन की राजनीति ही परवान नहीं चढ़ी बल्कि चुनावी राजनीति में क्षत्रपों के दबदबे की वास्तविक शुरुआत भी इसी दौर में हुई। 1999 चुनाव सूबाई क्षत्रपों का स्वर्णिम काल रहा। उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक और पूरब-पश्चिम से लेकर मध्य भारत तक इन क्षत्रपों की असरदार उपस्थिति दिखी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के खाते में 17 से बढ़कर 26 सीटें हो गईं और आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम का आंकड़ा 16 सीटों से बढ़कर 29 पर पहुंच गया।

बिहार में लालू प्रसाद यादव को झटका लगा और वे 17 से गिरकर सात पर अटक गए। जॉर्ज फर्नांडीस और शरद यादव के जनता दल (यू) की हैसियत 12 से बढ़कर 21 की हो गई। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की शिवसेना ने 15 का आंकड़ा बनाए रखा। बहुजन समाज पार्टी पहले 11, फिर पांच और 1999 में 14 सीटें जीतने में सफल रही। शरद पवार की पार्टी को 1999 में आठ सीटों पर जीत मिली और इतनी ही सीटें पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के खाते में गईं।

पश्चिम बंगाल केरल और त्रिपुरा में वामपंथी मोर्चा भी अपनी बढ़त बनाए रखते हुए 40 सीटें जीतने में कामयाब रहा। तमिलनाडु में एम. करुणानिधि और जयललिता ने भी क्रमश: 12 और 10 सीटें हासिल कर अपना दबदबा बनाए रखा। ओडिशा में नवीन पटनायक के बीजू जनता दल ने भी दस सीटों के साथ और हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाल के इंडियन नेशनल लोकदल ने पांच सीटों के साथ अपनी हैसियत बनाए रखी। जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला भी चार सीटों के साथ परिदृश्य में बने रहे।

इस बार एनडीए सरकार का पूरा कार्यकाल गठबंधन की राजनीति में एक नया अनुभव रहा। स्थिति यह हो गई कि गठबंधन राजनीति को हमेशा हिकारत से देखने वाली कांग्रेस को भी अब गठबंधन की राजनीति स्वीकार करनी पड़ी। उसने भी भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का गठन किया। अपने रवैये में लाए गए इस बदलाव के उसे 2004 के आम चुनाव में अनुकूल परिणाम भी मिले।

दरअसल यूनाइटेड फ्रंट में कई क्षेत्रीय पार्टियां थीं। DMK भी इस गठबंधन का हिस्सा थी। डीएमके पर श्री लंका के विद्रोही संगठन LTTE का सहयोग करने का आरोप था। इस संगठन पर ही राजीव गांधी की हत्या का आरोप था। कांग्रेस ने इंद्र कुमार गुजराल से DMK को छोड़ देने को कहा लेकिन गुजराल नहीं माने। ऐसे में कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई।

विदेशी निवेश बनाम राष्ट्रवाद
सरकार के विरोध में कांग्रेस (इंदिरा) के अलावा भारतीय जनता पार्टी थी। राजनीतिक स्थिरता को ही बीजेपी ने चुनाव का मुद्दा बनाया। बीजेपी ने चुनाव प्रचार में भ्रष्टाचार को खत्म करने और देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की बात की। एक तरफ कांग्रेस विदेशी निवेश को बढ़ावा देने की बात कर रही थी तो दूसरी तरफ बीजेपी ने राष्ट्रवाद को ढाल बनाकर घरेलू उद्योगों को उनका अधिकार दिलाने की बात की। इसके अलावा सभी पार्टियों ने बिजली, सड़क, पानी और रोजगार को भी अपना चुनावी मुद्दा बनाया। चुनाव में देशभर में 4,750 उम्मीदवार मैदान में थे जिनमें 271 महिलाएं थीं।

सोनिया गांधी का राजनीति में प्रवेश
पहले सोनिया गांधी राजनीति में कदम नहीं रखना चाहती थीं। 1997 में कांग्रेस पार्टी की कमान सीताराम केसरी के हाथों में थी। 1997 में ही सोनिया गांधी ने राजनीतिक दबाव के बीच कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ली और कुछ ही दिनों के भीतर सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। बीजेपी ने कांग्रेस के इस कदम की काफी आलोचना की और उनके विदेशी होने के बावजूद अध्यक्ष बनने पर सवाल उठाए। 1998 का चुनाव सीताराम केसरी के ही नेतृत्व में लड़ा गया लेकिन चुनाव के तुरंत बाद कांग्रेस ने सोनिया गांधी को कांग्रेस की कमान दे दी गई।

543 सीटों पर हुए चुनाव
4,750 उम्मीदवारों ने हिस्सा लिया
1,493 उम्मीदवार थे राष्ट्रीय पार्टियों से
1,915 निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में थे, जिनमें से केवल छह ही विजेता बने, जबकि 1898 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई
एक वोट से हार गई भाजपा
नतीजों के बाद भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। सहयोगियों के समर्थन से अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। हालांकि, इसके लगभग एक वर्ष बाद अन्नाद्रमुक सांसदों ने अपना समर्थन वापस ले लिया, जब केंद्र सरकार को सदन में अपना बहुमत साबित करने के लिए कहा गया तब यह भारतीय संसद का सबसे प्रसिद्ध अविश्वास प्रस्ताव बन गया।
17 अप्रैल, 1999 को 270 के मुकाबले 269 वोट हासिल कर सरकार केवल एक वोट से हार गई। इससे पहले किसी भी सरकार ने एक वोट से अपना बहुमत नहीं खोया था और ऐसा दोबारा होने की संभावना कम ही दिखती है।

कुल सीटें- 543
भाजपा- 182
कांग्रेस- 141
सीपीआई- 32
सपा- 20
एआईएडीएमके- 18
राष्ट्रीय जनता दल- 17
तेलगु देशम पार्टी- 12
सीपीआई- 9
बीजू जनता दल- 9
अकाली दल- 8

कारगिल की जीत का असर
कारगिल युद्ध में पाकिस्तान की सेना की संलिप्तता सामने आई। पाकिस्तान पूरे विश्व में बेनकाब हुआ। चुनाव पर कारगिल युद्ध में विजय का असर भी पड़ा। जनता ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कुशल नेतृत्व में एक बार फिर से भरोसा जताया।

स्वदेशी बनाम विदेशी
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने देश में पैदा हुए अटल बिहारी वाजपेयी (स्वदेशी) और विदेश में पैदा हुई सोनिया गांधी (विदेशी) को अपने प्रचार अभियान का हिस्सा बनाया। सोनिया गांधी 1998 में कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं थीं।

कांग्रेस-भाजपा के वोटों का अंतर 8 लाख
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में पहली बार कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ा। हालांकि खुद सोनिया ने चुनाव नहीं लड़ा।
पहली बार कांग्रेस को अमेठी सीट पर हार देखनी पड़ी। यहां कांग्रेस से भाजपा में आए संजय सिंह ने कैप्टन सतीश शर्मा को 23 हजार से अधिक वोटों से हराया।
कांग्रेस को जहां 25.82 फीसदी वोट मिले, वहीं बीजेपी को 25.59 फीसदी। कांग्रेस को 9.51 करोड़ वोट मिले वहीं भाजपा को 9.43 करोड़ वोट मिले।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहली बार संसद में 1998 में ही पहुंचे। आदित्यनाथ संसद पहुंचे तो उस समय वह सबसे कम उम्र के सांसद थे, उनकी उम्र 26 साल थी।
पार्टियां जिन्होंने चुनाव लड़ा उनकी संख्या कुल 176 थी। इनमें सात राष्ट्रीय, 30 राज्य स्तरीय और 139 रजिस्टर्ड पार्टियां शामिल थीं। वहीं चुनाव में कुल उम्मीदवार 4750 थे।
12वीं लोकसभा केवल 413 दिन चली, जो अब तक के संसदीय इतिहास का सबसे कम समय है।
सरकार की सहयोगी और एआईएडीएमके प्रमुख जयललिता ने तमिलनाडु सरकार बर्खास्त न करने के कारण आखिरकार वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया। देश को एक बार फिर सिर्फ 13 महीने बाद ही आमचुनाव में जाना पड़ा।
सपा संरक्षक व पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का पश्चिम उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में से सबसे गहरा नाता संभल से रहा है। वर्ष 2011 से पहले तक संभल मुरादाबाद जिले का हिस्सा हुआ करता था लेकिन संसदीय क्षेत्र संभल ही था। तब संभल के लोकसभा क्षेत्र में बदायूं जिले की विधानसभा क्षेत्र गुन्नौर और बिसौली भी शामिल हुआ करती थी। संभल लोकसभा क्षेत्र से 1998 में मुलायम सिंह ने पहली बार चुनाव लड़ा और वह जीते थे।

मुलायम सिंह यादव उस समय रक्षामंत्री थे। उनका मुकाबला भाजपा के प्रत्याशी बाहुबली डीपी यादव से था। डीपी यादव के पक्ष में चुनाव प्रचार के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह हसनपुर तहसील के गांव रहरा में आए थे। यह इलाका भी उस समय संभल लोकसभा क्षेत्र का ही हिस्सा था। मुख्यमंत्री की सभा के बाद डीपी यादव का चुनावी किला इतना मजबूत हुआ कि मुलायम सिंह का चुनाव कमजोर नजर आने लगा था। मुलायम सिंह जवानी में पहलवान थे और उन्होंने राजनीति में भी अपने दांव पेच खूब आजमाए। एक दांव 1998 में लोकसभा चुनाव के मतदान से एक दिन पहले चला। बसपा सुप्रीमो मायावती को अपने विश्वास में लेते हुए कल्याण सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने की रणनीति तैयार की थी। सपा और बसपा मिलकर भी सरकार नहीं बना पा रहे थे। इसलिए लोकतांत्रिक कांग्रेस के जगदंबिका पाल को विश्वास में लिया और उन्हें विधायक दल का नेता चुने जाने का आश्वासन दिया। मुलायम सिंह की रणनीति काम कर गई और जगदंबिका पाल और नरेश अग्रवाल के नेतृत्व में विधायकों ने तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी को सरकार से समर्थन वापस लेने का पत्र सौंपा था। इसी के साथ बसपा, सपा और कांग्रेस के समर्थन की चिट्ठी राज्यपाल को सौंपी गई। जिसके बाद 21 फरवरी 1998 की शाम में ही जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री की शपथ कराई थी। कल्याण सिंह सरकार गिरते ही संभल के लोकसभा चुनाव का माहौल ही बदल गया था। 22 फरवरी 1998 को हुए मतदान में मुलायम सिंह यादव को 376828 मत मिले थे। जबकि डीपी यादव को 210146 मत मिले थे। मुलायम सिंह यादव ने 166682 मतों के अंतर से जीत हासिल की थी। मुलायम सिंह यादव को कहा जाता है कि संभल लोकसभा सीट के लिए ही एक दिन पूर्व सरकार गिरा दी गई थी। राजनीति के बड़े नामों में शुमार मुलायम सिंह यादव का संभल से लगाव भी बहुत था और वह मुख्यमंत्री रहते हुए भी कई बार संभल आए थे।