1962 का तीसरा आम चुनाव कई मामलों में पिछले दोनों आम चुनावों से अलग था। पहली बार हर संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक सांसद चुना गया और यह सिलसिला अब भी जारी है। इससे पहले के दोनों आम चुनावों में कुछ संसदीय क्षेत्र ऐसे थे, जहां से 2 प्रतिनिधि चुने जाते थे- एक सामान्य वर्ग से और एक एससी-एसटी समुदाय से। तीसरा आम चुनाव पंडित जवाहर लाल नेहरू का आखिरी चुनाव भी था। इस चुनाव में सी. राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी ने भी छाप छोड़ी, जो देश की पहली मुक्त-बाजार समर्थक पार्टी थी। वहीं, दक्षिण में पहली बार डीएमके की धमक दिखी। 1955 में कांग्रेस कार्यकारिणी में एंट्री के बाद तीसरे आम चुनाव तक इंदिरा गांधी राजनीति में स्थापित हो चुकी थीं और कांग्रेस में उनका प्रभाव बढ़ चुका था। इंदिरा को नेहरू के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाने लगा था।
चुनाव कार्यक्रम और प्रक्रिया
पिछले दोनों आम चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव प्रक्रिया लंबी रही। वोटिंग प्रक्रिया 16 फरवरी से 6 जून तक चली। दो सदस्यीय संसदीय क्षेत्रों को 1961 में एक कानून बनाकर खत्म किया जा चुका था, लिहाजा 494 संसदीय सीटों से इतने ही प्रतिनिधि संसद के निम्न सदन के लिए चुने गए। कुल 21.8 करोड़ वोटरों में से 55.4 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया।
नेहरू का आखिरी चुनाव
1962 का आम चुनाव पंडित जवाहर लाल नेहरू का आखिरी चुनाव था। इसमें उन्होंने यूपी की फूलपुर सीट से जीत की हैटट्रिक लगाई। नेहरू अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से 33 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल कर विजयी हुए। चुनाव बाद नेहरू एक बार फिर प्रधानमंत्री बने लेकिन बाद में उसी साल भारत-चीन युद्ध से उन्हें ऐसा सदमा लगा कि 2 साल बाद मई 1964 में उनका देहांत हो गया। सन् 1962 में तीसरा आम चुनाव आते-आते प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सफेद चादर थोड़ी-थोड़ी मैली हो चुकी थी। उनके अपने ही दामाद सांसद फिरोज गांधी ने मूंदडा कांड का पर्दाफाश किया था, जिसके चलते नेहरू सरकार के वित्तमंत्री टीटी कृष्णामाचारी को इस्तीफा देना पड़ा था। मूंदड़ा कांड को फिरोज ने जिस शिद्दत से उठाया था, वह नेहरू को बेहद नागवार गुजरा था। इसी वजह से दोनों के बीच दूरी बढ़ गई थी। यह बात दूसरे आम चुनाव के बाद 1957-58 की है। 1960 में दिल का दौरा पड़ने से फिरोज गांधी की मौत हो गई। इसी दौरान नेहरू पर वंशवाद को बढ़ावा देने का आरोप भी लग चुका था, क्योंकि उन्होंने बेटी इंदिरा गांधी को 1959 मे कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया था। इंदिरा गांधी के दबाव में ही पहली बार एक निर्वाचित राज्य सरकार की बर्खास्तगी हुई थी।
केरल की ईएमएस नम्बूदिरिपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को 1959 में केंद्र के इशारे पर बर्खास्त कर दिया गया था। इसी सबके बीच राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्र पार्टी का गठन हो चुका था जिसके मुख्य मुख्य कर्ताधर्ता स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी और मीनू मसानी थे। मीनू मसानी को स्वतंत्र पार्टी का मुख्य सिद्धांतकार माना जाता था। इस पार्टी ने नेहरू के समाजवाद को सीधी चुनौती दी थी। दरअसल स्वतंत्र पार्टी जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के भी लाफ थी और कोटा परमिट राज के भी। तो इसी पूरी पृष्ठभूमि में हुआ था 1962 में लोकसभा का तीसरा आम चुनाव। 494 सीटों के लिए हुए इस चुनाव को बतौर मतदाता 21 करोड़ 64 लाख लोगों ने देखा। 11 करोड़ 99 लाख मतदाताओं यानी 55.42 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इस चुनाव पर सरकारी खजाने से कुल सात करोड़ 80 लाख रुपए खर्च हुए थे। कुल 1985 प्रत्याशी चुनाव लड़े थे जिनमें से 856 की जमानत जब्त हो गई थी। कुल 66 महिलाएं चुनाव लड़ी थीं, जिनमें से 31 जीती थीं और 19 को जमानत गंवानी पड़ी थी।
Source- The Data Street
कांग्रेस ने 488 सीटों पर चुनाव लड़कर 361 पर जीत हासिल की। उसे 44.72 प्रतिशत वोट मिले थे। उसके तीन उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। दूसरे आम चुनाव की तरह इस बार भी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) रही। उसने 137 सीटों पर चुनाव लड़कर 29 पर जीत दर्ज की। उसे 9.94 प्रतिशत वोट मिले जबकि उसके 26 प्रत्याशियो को अपनी जमानत गंवानी पड़ी थी। तीसरे नंबर पर स्वतंत्र पार्टी रही। 7.89 फीसदी वोटों के साथ उसे 18 सीटों पर जीत मिली। स्वतंत्र पार्टी ने कुल 173 प्रत्याशियों को चुनाव मैदान मे उतारा था जिनमें 75 की जमानत जब्त हो गई थी। जनसंघ की सीटों में 1957 के मुकाबले तीन गुना से भी ज्यादा का इजाफा हुआ। उसके 196 उम्मीदवारों मे से 14 जीते पर 114 की जमानत भी जब्त हो गई। उसका वोट प्रतिशत तीन से बढ़कर 6.44 फीसदी हो गया। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के खाते में 12 और सोशलिस्ट पार्टी के खाते में छह सीटें गई थीं। पीएसपी को 6.81 फीसदी और सोशलिस्ट पार्टी को 2.69 फीसदी वोट मिले थे।
पीएसपी के 168 और सोशलिस्ट पार्टी के 107 उम्मीदवार चुनाव लड़े थे। दोनों के जमानत गंवाने वाले प्रत्याशियों की संख्या क्रमशः 69 और 75 रही। क्षेत्रीय दलों ने 28 और अन्य पंजीकृत दलों ने छह सीटों पर जीत हासिल की। कुल 479 निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में थे जिनमें से 20 जीते थे और 378 को अपनी जमानत गंवानी पड़ी थी। अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा कम होने की शुरुआत : इस चुनाव के पहले तक लोकसभा चुनावो में बतौर नेता अधिकांशतः अंग्रेजीदां उच्च मध्यवर्गीय तबके का कब्जा रहा। 1962 मे पहली बार यह कब्जा टूटना शुरू हुआ। संसद मे किसान और ग्रामीण पृष्ठभूमि के प्रतिनिधियों के प्रवेश का रास्ता खुला। हालांकि इस चुनाव के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में जरूर गए लेकिन इसी चुनाव में नेहरू के समाजवाद से मोहभंग सिलसिला भी शुरू हुआ और उनके करिश्मे ने अपनी चमक खोनी शुरू कर दी। इस तीसरी लोकसभा का गठन जून में हुआ और तीन महीने बाद ही अक्टूबर 1962 मे भारत-चीन युद्ध हो गया। इस युद्ध से नेहरू को करारा झटका लगा और मृत्यु तक वे इससे उबर नहीं सके। कहा जाता है कि 1962 के चुनाव ने 1967 के आम चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी और फिर 1967 आते-आते भारतीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व के एक अध्याय की समाप्ति की कहानी लिख दी गई। लेकिन सब कुछ के बावजूद इस चुनाव ने कुछ चमत्कारिक फैसले भी दिए जिनसे सिक्के के दूसरे पहलू की जानकारी मिलती है।
आजादी के बाद भ्रष्टाचार का पहला मामला : मूंदड़ा कांड आजादी के बाद भ्रष्टाचार का पहला बड़ा मामला था। इसके लिए तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णामाचारी को जिम्मेदार माना गया। उन्होंने इस्तीफा भी दिया लेकिन 1962 का चुनाव भी लड़ा और निर्विरोध जीतकर लोकसभा मे पहुंच गए। सवाल है कि क्या आज की तरह उस वक्त का जनमानस भी भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा मानने के लिए तैयार नही था? दूसरी अहम बात यह थी कि नेहरू के खिलाफ समाजवादी नेता डॉ. लोहिया चुनाव लड़े। उनके द्वारा उठाए गए सारे मुद्दे धरे रह गए और नेहरू को उनसे ज्यादा वोट मिले। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि आधुनिकता, लोकतंत्र और समाजवाद का राग अलापने वाले प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने जीते जी बेटी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया और लोकतंत्र में वंशवाद की शुरुआत कर दी और सारे कांग्रेसी दिग्गज खामोश रहे। नेहरू की लगाई गई वंशवाद की बेल आज भी न सिर्फ कांग्रेस में सर सब्ज है बल्कि दूसरे तमाम दलों में भी लहलहा रही है।
इंद्रजीत गुप्त, किशन पटनायक, भागवत झा, तारकेश्वरी समेत कई दिग्गज जीते : पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भी अधिकांश दिग्गज नेता चुनाव जीतने में सफल रहे। बड़े नेताओं में पहली बार 1962 का चुनाव जीतने वालों में कम्युनिस्ट नेता इंद्रजीत गुप्त, सुप्रसिद्ध समाजवादी चिंतक किशन पटनायक, कांग्रेस नेता कृष्णचंद्र पंत और भागवत झा आजाद थे। इंद्रजीत गुप्ता कोलकाता (दक्षिण-पश्चिम) लोकसभा क्षेत्र से जीते थे और उन्होंने लगातार दस बार लोकसभा में पहुंचने का रिकॉर्ड बनाया। किशन पटनायक ओडिशा के संबलपुर संसदीय क्षेत्र से जीते थे। वे सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लड़े थे और तीसरी लोकसभा में पहुंचने वाले सबसे कम उम्र के सदस्य थे। निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में राजस्थान के जोधपुर क्षेत्र से लक्ष्मीमल्ल सिंघवी को विजय मिली थी। एम. अनंतशयनम आयंगर, तारकेश्वरी सिन्हा, जगजीवन राम, गुलजारीलाल नंदा, मोरारजी देसाई, वीके कृष्णमेनन, सरदार स्वर्ण सिंह, सुभद्रा जोशी, केडी मालवीय, लालबहादुर शास्त्री, दिनेशसिंह, विद्याचरण शुक्ल, हुकुम सिंह और अतुल्य घोष आदि कांग्रेसी दिग्गज 1962 का चुनाव जीते थे।
विजयाराजे सिंधिया भी ग्वालियर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर फिर लोकसभा मे पहुंची थीं। असम की गुवाहाटी सीट से सोशलिस्ट नेता (पीएसपी ) हेम बरुआ भी चुनाव जीते। आरएसपी के त्रिदिब चौधरी और कम्युनिस्ट नेता एके गोपालन की भी जीत हुई थी। हिमाचल प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह भी इसी चुनाव में पहली बार लोकसभा पहुंचे थे। बूटासिंह अकाली दल के टिकट पर पंजाब के मोगा संसदीय क्षेत्र से विजयी हुए थे। रेणु चक्रवर्ती भाकपा के टिकट पर पश्चिम बंगाल की बैरकपुर सीट से जीतीं। रिपब्लिकन पार्टी से बुद्धप्रिय मौर्य भी अलीगढ़ से लोकसभा में पहुंचे थे। वे बुलंदशहर से भी चुनाव लड़े थे, लेकिन वहां से हार गए थे। सरदार हुकुम सिंह पटियाला से कांग्रेस के टिकट पर जीते और लोकसभाध्यक्ष बने। बाहरी मणिपुर संसदीय सीट से सोशलिस्ट पार्टी के रिशांग किशिंग भी महज 42 वोटों से जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे। समाजवादी नेता सुरेंद्र नाथ द्विवेदी भी ओडिशा की केंद्रपाड़ा सीट से प्रजा समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे।
लोहिया, डांगे, कृपलानी और अटल बिहारी हारे : पिछले दो चुनावों की तरह 1962 के लोकसभा चुनाव में कई दिग्गज हार गये थे। डॉ. राममनोहर लोहिया, श्रीपाद अमृत डांगे, अटल बिहारी वाजपेयी, जेबी कृपलानी, जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक, कांग्रेस नेता ललित नारायण मिश्र, रामधन, बिहार के मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर- ये सबके सब हार गए थे। मुंबई शहर (मध्य) सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता डांगे को कांग्रेस के विपुल बालकृष्ण गांधी ने हराया। अटल बिहारी वाजपेयी बलरामपुर और लखनऊ दो जगहों से चुनाव लड़े थे और दोनों ही जगहों से उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। बलरामपुर में उन्हें कांग्रेस की सुभद्रा जोशी ने और लखनऊ में कांग्रेस के ही बीके धवन ने हराया था। बंबई शहर (उत्तर) से जेबी कृपलानी की हार कांग्रेस के दिग्गज वीके कृष्णमेनन के हाथों हुई। बिहार की सहरसा सीट से सोशलिस्ट पार्टी के भूपेन्द्र नारायण मंडल ने ललित नारायण मिश्र को पराजित किया था। नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र से खड़े बलराज मधोक को कांग्रेस के मेहरचंद खन्ना ने हराया। रामधन उत्तर प्रदेश की लालगंज सीट से हारे तो अब्दुल गफूर की हार बिहार की उस वक्त की जयनगर सीट से हुई थी। गफूर तब स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लड़े थे। उनकी जीत भी मात्र 66 वोटों से हुई थी।
सबसे दिलचस्प मुकाबला- नेहरू के खिलाफ लोहिया की ललकार : सबसे रोचक मुकाबला जवाहरलाल नेहरू के लोकसभा क्षेत्र फूलपुर मे था जहां उनके विरुद्ध प्रख्यात समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया चुनाव मैदान मे उतरे थे। लोहिया की करारी हार हुई थी। नेहरू को कुल एक लाख 18 हजार 931 वोट मिले जबकि डॉ. लोहिया को मात्र 54 हजार 360 वोट ही हासिल हुए थे। इस चुनाव से ठीक पहले लोहिया ने कहा था कि मैं मानता हूं कि दो बड़े नेताओं को एक दूसरे के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, लेकिन मैं नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ रहा हूं तो इसलिए क्योंकि उन्होंने जनता को ‘गोवा विजय’ की घूस दी है। यह राजनीतिक कदाचार है। अगर वे चाहते तो गोवा पहले ही आजाद हो गया होता।
लोहिया ने कहा, दूसरी बात यह है कि नेहरू पर रोजाना 25 हजार स्र्पए खर्च होते हैं जबकि देश की तीन चौथाई आबादी को प्रतिदिन दो आने भी नहीं मिलते हैं। नेहरू की यह फिजूलखर्ची भी एक तरह का भ्रष्टाचार है। मैं जानता हूं कि इस चुनाव में नेहरूजी की जीत प्रायः निश्चित है। मैं इसे प्रायः अनिश्चित में बदलना चाहता हूं ताकि देश बचे और नेहरू को भी सुधरने का मौका मिले। लोहिया यह चुनाव हारने के एक साल बाद ही 1963 में उत्तर प्रदेश की फर्रुखाबाद सीट से उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंच गए। लोकसभा में पहुंचते ही उन्होंने नेहरू की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। प्रस्ताव पर बहस के दौरान उन्होंने जो भाषण दिया वह बेहद चर्चित रहा।
कृपलानी के नेहरू से मतभेद
1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद तो उन्होंने कांग्रेस को ही छोड़ दी। बता दें कि जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1946 में अंतरिम सरकार बनने के बाद जे.बी. कृपलानी कांग्रेस अध्यक्ष बने थे। हालांकि, प्रधान मंत्री से मतभेद के कारण उन्होंने नवंबर,1947 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद कार्य समिति ने कृपलानी को अध्यक्ष बनाया था। ऐसा गांधी जी के कहने पर हुआ था, अन्यथा नेहरू और कृपलानी के विचार नहीं मिलते थे। लगभग परस्पर विरोधी विचार वाले ये दोनों नेता थे।
वामपंथी थे मेनन
दूसरी ओर, मेनन वामपंथी थे। ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर रहे चुके थे। 1953 में राज्य सभा के सदस्य बने और बाद में रक्षा मंत्री। चीन के हाथों भारत की हार के बाद मेनन को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। 1967 में कांग्रेस ने उन्हें टिकट तक नहीं दिया। प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी चाहती थीं कि मेनन को टिकट मिले, लेकिन तब पार्टी पर प्रधान मंत्री का असर बहुत कम था। बाद में 1969 में वामपंथियों की मदद से वह पश्चिम बंगाल से एक उप-चुनाव के जरिए लोक सभा पहुंचे थे। 1962 में भारत में तीसरा लोकसभा चुनाव हुआ। कांग्रेस फिर सत्ता में आई। यह लगातार तीसरी बार था जब आम चुनाव में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला था। जवाहरलाल नेहरू एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री बने। चुनाव में कांग्रेस ने 494 सीटों में से 361 सीटें जीतीं जो पहले और दूसरे आम चुनाव के मुकाबले कम थीं। पहले आम चुनाव में कांग्रेस के खाते में 364 सीटें आई थींं जबकि दूसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 371 सीटें जीती थीं। तीसरे आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के खाते में 29 सीटें आई थीं। इस बार पार्टी ने पहले और दूसरे आम चुनाव के मुकाबले ज्यादा सीटें जीती थीं। 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में सीपीआई ने 16 सीटें और 1957 के दूसरे लोकसभा चुनाव में 27 सीटें जीती थीं।
28 पार्टियां थी मैदान में, जनसंघ के खाते में आईं थीं 14 सीटें
भारत के तीसरे आम चुनाव में 28 पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। चुनाव में भारतीय जनसंघ ने 14 सीटें जीती थीं। कुल सीटों की 60 फीसदी से ज्यादा सीटें कांग्रेस के खाते में गईं थी। स्वतंत्र पार्टी ने चुनाव में 18 सीटें जीती। वहीं, हिंदुत्व के विरोध में दक्षिण में उभरी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) इस चुनाव में सात सीटें जीतने में कामयाब रही। निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनाव में 20 सीटें जीती थीं।
कांग्रेस का वोट शेयर घटा, उभरकर नहीं आया था मजबूत विपक्ष
तीसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर घटा था। पार्टी ने दूसरे लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में 10 सीटें कम जीती थीं। मुस्लिम लीग, अकाली दल, अखिल भारतीय हिंदू महासभा और राम राज्य परिषद बुरी तरह से चुनाव हार गए। 1957 की ही तरह इस चुनाव में भी मजबूत विपक्ष उभरकर सामने नहीं आया। चुनाव में भारतीय जनसंघ का प्रदर्शन जरूर ठीक रहा। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने इस चुनाव में 12 सीटें जीतीं। कांग्रेस का वोट शेयर जहां पहले आम चुनाव में 45 फीसदी और दूसरे आम चुनाव में 48 फीसदी से ज्यादा था, वहीं तीसरे आम चुनाव में यह घटकर 44.72 फीसदी हो गया। इस चुनाव में मतदाताओं की कुल हिस्सेदारी 55.42 फीसदी रही।
दिल्ली के दिल कनाट प्लेस में बोर्ड पर दिखाए गए थे चुनाव नतीजे
पहला और दूसरा आम चुनाव जहां कई महीने चला वहीं, तीसरा लोकसभा चुनाव एक ही हफ्ते में संपन्न हो गया था। यह चुनाव 19 फरवरी से 25 फरवरी के बीच हुआ था। चुनाव परिणामों को दिल्ली के दिल कनाट प्लेस में काले रंग के बोर्ड पर दिखाया गया था। यह चुनाव 18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हुआ था। 4 पार्टियों ने ही छुआ दहाई का आंकड़ा 1962 के लोकसभा चुनाव परिणामों में कांग्रेस के अलावा सिर्फ चार पार्टियां ही दहाई का आंकड़ा छू पाई थीं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने 29 सीटें जीती थीं। स्वतंत्र पार्टी के खाते में 18 सीटें और भारतीय जनसंघ ने 14 सीटें जीती थीं। वहीं, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने चुनाव में 12 सीटें और सोशलिस्ट पार्टी ने 6 सीटें जीती थीं। अकाली दल के खाते में 3 सीटें और अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने चुनाव में एक सीट जीती थी।
इंदिरा का आधिकारिक तौर पर राजनीति में प्रवेश और ‘स्वतंत्र’ पार्टी का अस्तित्व
तीसरे लोकसभा चुनाव में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही सदस्य चुना गया। इंदिरा गांधी का तब तक आधिकारिक तौर पर भारतीय राजनीति में प्रवेश हो चुका था। 1959 में इंदिरा को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था। यह ऐसा वक्त था जब जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस के विरोध में सी राजगोपालाचारी ने ‘स्वतंत्र पार्टी’ की स्थापना की थी। पार्टी 1959 में बनी। ‘स्वतंत्र पार्टी’ एक उदारवादी-रुढ़िवादी राजनीतिक पार्टी थी जिसका मकसद सीधे जवाहरलाल नेहरू को चुनौती देना था। राजगोपालाचारी ने नेहरू की समाजवादी नीतियों के विरोध में स्वतंत्र पार्टी बनाई थी। पार्टी ने 1962 का लोकसभा चुनाव लड़ा और 18 सीटें जीती।
जिस सीट से पहली बार संसद पहुंचे थे, तीसरे लोकसभा चुनाव में वहीं से हार गए थे वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी दूसरे लोकसभा चुनाव में जिस सीट से चुनकर संसद पहुंचे थे, तीसरे लोकसभा चुनाव में उसी सीट से हार गए। उन्हें यूपी के बलरामपुर सीट से कांग्रेस की सुभद्रा जोशी ने हराया था। 1957 में जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले वाजपेयी को इस सीट ने उभरता हुआ राजनेता बनाया था। संसद में उनके भाषणों से नेहरू इतने प्रभावित हुए कि कह डाला यह लड़का एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा। दरअसल, अटल 1953 में लखनऊ से उप-चुनाव हार गए थे। 1957 में उन्होंने मथुरा, बलरामपुर और लखनऊ से लोकसभा चुनाव लड़ा था। मथुरा से वाजपेयी की करारी हार हुई लेकिन वह बलरामपुर में कांग्रेस के हैदर हुसैन से 10 हजार वोटों से जीत गए। इसके बाद तीसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बलरामपुर सीट से गांधीवादी सुभद्रा जोशी को मैदान में उतारा। जोशी और वाजपेयी एक साथ 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से देश सेवा में आए थे, लेकिन दोनों की विचारधाराएं अलग-अलग थीं। वाजपेयी उस वक्त संसद में धीरे-धीरे विपक्ष का प्रमुख चेहरा बन रहे थे लेकिन 1962 में बलरामपुर सीट ने उनकी इस लोकप्रियता पर थोड़ी रोक लगा दी। लोकसभा चुनाव हारने के बाद वाजपेयी इसी साल जनसंघ की तरफ से राज्यसभा सांसद नियुक्त हुए।
चुनाव जीतने के दो साल बाद हो गया था नेहरू का देहांत, 1966 में इंदिरा बनी थी पीएम
तीसरे लोकसभा चुनाव की जीत के दो साल बाद 27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू का देहांत हो गया था। उनकी जगह लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने। 19 महीने के कार्यकाल के बाद 1966 में लाल बहादुर शास्त्री का देहांत हो गया। इसके बाद गुलजारी लाल नंदा को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया। 1966 में आखिर में इंदिरा गांधी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। तीसरा लोकसभा चुनाव कई मायनों में अहम रहा था। इस चुनाव में सिर्फ 485 सीटों के परिणाम घोषित हुए थे। नौ सीटों में से यूपी की दो सीटों पर फिर से काउंटिंग हुई और मणिपुर की दो सीटों पर हाल ही में चुनाव हुए थे। बर्फ पड़ने की वजह से हिमाचल की चार और पंजाब की एक सीट के लिए अप्रैल में चुनाव हुए। इन पांचों सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। चुनाव के बाद ही अक्टूबर 1962 से लेकर नवंबर 1962 के बीच भारत और चीन का युद्ध हुआ था।
भारत में राजनीतिक बदलाव की शुरुआत के लिए तीसरा आम चुनाव मील का पत्थर साबित हुआ है. पहले आम चुनाव 1952 में लगे चार महीने और दूसरे आम चुनाव 1957 में लगे तीन महीने के वक्त के मुकाबले में तीसरा आम चुनाव 1962 महज एक हफ्ते में ही कंप्लीट हो गया था. 19 फरवरी से 25 फरवरी 1962 के बीच तीसरा आम चुनाव पूरा कर लिया गया था. इस चुनाव में कांग्रेस ने सत्ता की हैट्रिक तो लगा ली, लेकिन संसद में न सिर्फ उसका कद घटा, बल्कि लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बावजूद जवाहर लाल नेहरू की चमक भी फीकी पड़ने लगी.
नंबूदरीपाद सरकार की बर्खास्तगी, स्वतंत्र पार्टी का गठन और चीन का हमला
साल 1960 में दिल के दौरे से फिरोज गांधी की मौत से पहले 1959 में इंदिरा गांधी के दबाव में केरल की चुनी हुई ईएमएस नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त करने के फैसले से भी पीएम नेहरू बुरी तरह घिरे. इसी साल जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस के विरोध में सी राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की. नेहरू की समाजवादी नीतियों के विरोध में उदारवादी-रुढ़िवादी स्वतंत्र पार्टी बनाकर राजगोपालाचारी ने लोकसभा चुनाव 1962 में 18 सीटें जीत ली. पंडित नेहरू के लिए कुछ महीने के बाद सबसे बड़ा झटका चीन के आक्रमण से लगा. हिंदी-चीनी भाई-भाई के उनके पुराने नारे की वजह से भी उनकी साख पर चोट पहुंची. सीमा की सुरक्षा को लेकर तैयारियों की उपेक्षा के लिए जवाहरलाल नेहरू सरकार की आलोचना शुरू हो गई. इसके चलते रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को बर्खास्त कर दिया गया. देश को अमेरिकी सैन्य मदद स्वीकार करनी पड़ी. इसके बाद जवाहर लाल नेहरू का स्वास्थ्य भी खराब हो गया. उन्होंने महीनों तक कश्मीर में अपना इलाज करवाया, लेकिन वह पूरी तरह ठीक नहीं हो पाए. दिल का दौरा पड़ने से 27 मई, 1964 को उनका निधन हो गया.
फूलपुर सीट से नेहरू ने लगाई हैट्रिक, प्रधानमंत्री बनकर बड़े विपक्ष का सामना
पंडित जवाहर लाल नेहरू के लिए आम चुनाव 1962 उनका आखिरी चुनाव था. उत्तर प्रदेश की फूलपुर लोकसभा सीट से उन्होंने जीत की हैट्रिक लगाई. अपने नजदीकी प्रतिद्वंदी डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के मुकाबले उन्होंने 33 फीसदी से भी ज्यादा वोट हासिल किया. चुनाव नतीजे के बाद जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बने और पहले के मुकाबले ज्यादा बड़े विपक्ष का सामना किया. तीसरे आम चुनाव में कांग्रेस और उसकी आंतरिक दरारें भी उजागर हो गईं. इसने मतदाताओं के बीच असंतोष को बढ़ाने और विपक्ष को ताकतवर बनाने में मदद की. कांग्रेस के अलावा चार पार्टियों ने दहाई सीटों का आंकड़ा पार किया था. कांग्रेस के बाद कम्यूनिस्ट पार्टियां 29 सीटों पर जीतने के साथ दूसरे नंबर पर थी.
जमींदारी प्रथा उन्मूलन के खिलाफ स्वतंत्र पार्टी का गठन
1957 से 1962 के बीच कांग्रेस पार्टी के अंतरूनी मामलों से जूझ ही रही थी, तभी जमींदारी प्रथा के उन्मूलन और कोटा परमिट राज के खिलाफ सी. राजगोपालाचारी ने मोर्चा खोल दिया. स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल रहे सी.राजगोपालाचारी ने मीनू मसानी के साथ मिलकर स्वतंत्र भारत पार्टी का गठन किया और कांग्रेस की खिलाफत करते हुए चुनावी मैदान में कूद पड़े. 1962 के तीसरे लोकसभा चुनाव में स्वतंत्र भारत पार्टी ने कुल 173 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, जिसमें 18 उम्मीदवार जीत हासिल करने में कामयाब रहे. वहीं इस पार्टी के 75 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई.