अस्सी के दशक के आखिरी सालों में ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’ नारे के साथ लोग विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के आठवें प्रधानमंत्री बने थे. बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को लात मार आए वीपी सिंह भारतीय राजनीति के पटल पर नए मसीहा और क्लीन मैन की इमेज के साथ अवतरित हुए थे. लेकिन, मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू करते ही वीपी सिंह सवर्ण समुदाय की नजर ‘राजा नहीं, ‘रंक’ और ‘देश का कलंक’ में तब्दील हो गए.
वीपी सिंह ने एक जमींदार परिवार से निकल कर कांग्रेस की राजनीति में कदम रखा और यूपी के मुख्यमंत्री से होते हुए देश का वित्त मंत्री व रक्षा मंत्री बने. इसमें से उनका मुख्यमंत्री काल बागियों के खिलाफ अभियान के लिए जाना जाता है, जबकि वित्त मंत्री और रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने कॉरपोरेट करप्शन और रक्षा सौदा दलाली के खिलाफ सत्ता से विद्रोह करने का सियासी कदम उठाया.
बोफोर्स मामले ने बदल दी सियासत
बोफोर्स और एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी रक्षा सौदों के दलाली को लेकर वीपी सिंह ने केंद्र की राजीव गांधी सरकार से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस से दूर हो गए. न ही उनके पास कोई संगठन था और न किसी विचारधारा का आलम्बन. ऐसे में सिर्फ अपनी साफ-सुथरी व ईमानदार राजनेता छवि थी, जिसके सहारे देश राजनीति में वो धूमकेतु की तरह छा गए. बोफोर्स मुद्दे को लेकर वो जनता के बीच गए और इस मुद्दे को केंद्र में रखकर लड़े गए. 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई और कम्युनिस्टों और बीजेपी के समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने.
वीपी सिंह का जन्म 1931 में हुआ था
विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून 1931 उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में एक राजपूत जमीदार परिवार में (मंडा संपत्ति पर शासन किया) हुआ था. वह राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र थे. ऐसे में वीपी सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर देश की सत्ता पर काबिज हुए तो भारत ही नहीं बल्कि नेपाल तक के राजपूत समाज ने खुशी में दीप जलाया था. जश्न भी क्यों न मनाए आजादी के बाद पहली बार कोई राजपूत समाज का नेता भारत का प्रधानमंत्री बना था.
सामाजिक न्याय के मसीहा बने वीपी सिंह
पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए सामाजिक न्याय की दिशा में उन्होंने इतिहासिक कदम उठाते हुए मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू कर दिया. वीपी सिंह के इस फैसले से आधी आबादी यानी ओबीसी को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिला, जिससे पिछड़े समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दशा बदल गई. वहीं, दूसरा ओर इसी फैसले की वजह से सवर्ण समाज की नजर में वो विभाजनकारी व्यक्तित्व बन गए.
मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने को लेकर सवर्ण समाज आक्रोशित हो गया. मंडल कमीशन के खिलाफ देश भर में आंदोलन शुरू हो गए. एक समय जो समाज वीपी सिंह को हीरो के तरह देख रहा था, वही समाज उन्हें खलनायक की तरह याद है. उनका विरोध करने वाले मानते हैं कि उन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए मंडल कमिशन की सिफारिशों को लागू किया था.
सवर्ण समुदाय की नजर में खलनायक बने गए
वीपी सिंह ने पीएम रहते कुछ ऐतिहासिक कार्यों को अंजाम दिया, जिसके लिए कोई उन्हें नायक तो कोई उन्हें खलनायक के तौर पर देखता है. ओबीसी का बड़ा तबका उन्हें नायक के तौर पर देखते हैं, लेकिन उनकी छवि को एक नायक के रूप में स्थापित नहीं कर सका. वहीं, मंडल सिफारिशों के चलते जो लोग वीपी सिंह से नाराज थे. उन्होंने खलनायक के तौर पर उन्हें समाज में पेश किया.
बीजेपी व अन्य विपक्षी दलों का अभिजात्य वर्ग वीपी सिंह से इस कदर नाराज हुआ कि उन्हें सत्ता से बेदखल करने को लेकर सब एक हो गए. यहां तक वीपी सिंह के खिलाफ उनके ही समुदाय के चंद्रशेखर उनके लिए चुनौती बन गए. उस समय वीपी सिंह की संयुक्त मोर्चा सरकार बीजेपी की बैसाखी पर चल रही थी. मंडल आंदोलन को खरमंडल करने के लिए बीजेपी ने कमंडल की राजनीति को धार दे दिया. बीजेपी ने संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और संसद में विश्वास मत के दौरान उनकी सरकार गिर गई.
देश की आजादी से गोदान आंदोलन तक
वीपी सिंह ने छात्र जीवन में ही सियायत में कदम रखा दिया था. वीपी सिंह ने शुरुआती पढ़ाई के बाद 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उदय प्रताप कॉलेज में दाखिला ले लिया. यह वह समय था जब देश आजादी की खुशी मना रहा था और खुद को व्यवस्थित करने लगा हुआ था. वीपी सिंह ने छात्र राजनीति में कदम रखा और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रहे और कॉलेज के दिनों में ही आंदोलनों में कूद गए.
1957 में जब भूदान आंदोलन हुआ तो वीपी सिंह के नेतृत्व में भारी संख्या जुटे युवाओं को देखकर राजनीतिक पंडिंतों ने ऐलान कर दिया कि भविष्य का बड़ा नेता उभर रहा है. इस आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी जमीन दान कर दी. इस दौरान तक वह कांग्रेस में शामिल हो चुके थे. इस वक्त तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे ताकतवर नेता बन चुके थे. 1980 में वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.
वीपी सिंह का सियासी सफर
वह दो साल से ज्यादा मुख्यमंत्री रहे और फिर केंद्र सरकार में मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली. 31 दिसम्बर 1984 को वीपी सिंह केंद्रीय मंत्री बने. इस दौरान वीपी सिंह का टकराव प्रधानमंत्री राजीव गांधी से हो गया और उन्होंने कांग्रेस से अलग अपना सियासी रास्ता चुना और देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने मंडल कमीशन लागू कर ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दे दिया. इसके बावजूद वीपी सिंह कभी भी पिछड़ी जातियों के नेता नहीं बन पाए और अपने सवर्ण समाज की नजर में खलनायक पूरी उम्र बने रहे.
विश्वनाथ प्रताप सिंह कहा करते थे कि सामाजिक परिवर्तन की जो मशाल उन्होंने जलाई है और उसके उजाले में जो आंधी उठी है, उसका तार्किक परिणति तक पहुंचना अभी शेष है. अभी तो सेमीफाइनल भर हुआ है और हो सकता है कि फाइनल मेरे बाद हो. लेकिन अब कोई भी शक्ति उसका रास्ता नहीं रोक पाएगी. वीपी सिंह शुरुआत से ही नेतृत्व क्षमता के धनी रहे, जिसके दम पर सत्ता के सिंहासन तक पहुंचे और सामाजिक न्याय की दिशा में इतिहासिक कदम उठाकर पिछड़े और वंचित समाज को आरक्षण के दायरे में लाने का काम किया.