1967 का चौथा आम चुनाव भारतीय राजनीति के लिहाज से बहुत ही ज्यादा अहम था। पहली बार पंडित जवाहर लाल नेहरू की अनुपस्थिति में चुनाव हुआ। चुनाव बाद कांग्रेस लगातार चौथी बार सरकार बनाने में तो सफल रही लेकिन उसका प्रदर्शन पिछले चुनावों के मुकाबले फीका रहा। आम चुनाव के साथ होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में तो कांग्रेस को और तगड़ा झटका लगा और 6 राज्य उससे छिन गए। यह चुनाव इंदिरा युग की शुरुआत का भी चुनाव था। इंदिरा गांधी अपने दिवंगत पति फिरोज खान की सीट रायबरेली से पहली बार चुनाव लड़ीं और जीत हासिल कीं। चुनाव बाद वह दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं।
राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल की पृष्ठभूमि
तीसरी लोकसभा का कार्यकाल युद्ध, खाद्यान्न की कमी, सामाजिक तनाव और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर के रूप में याद किया जाता है। 1962 के भारत-चीन युद्ध से ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का राग छिन्न-भिन्न हो चुका था। इसके अलावा 1965 की भारत-पाक जंग भी हो चुकी थी। भारत-चीन युद्ध के सदमे से बीमार हुए नेहरू का 1964 में देहांत हो गया तो 1966 में ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री मौत हो चुकी थी। हिंदुस्तान 1962 से 1966 के बीच ही 4-4 प्रधानमंत्रियों का गवाह बन चुका था- पंडित जवाहर लाल नेहरू, गुलजारी लाल नंदा (दो बार), लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी।
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के होने के 13 दिन बाद 16 दिसंबर तक, पाकिस्तान के कमांडर जनरल अमीर अबुल्ला खान नियाज़ी ने ढाका (ढाका) में आत्मसमर्पण कर दिया, और अपनी सर्विस रिवॉल्वर भारतीय लेफ्टिनेंट-जनरल जेएस अरोड़ा को सौंप दी। जीत के बाद, इंदिरा गांधी ने तुरंत युद्धविराम की घोषणा कर दी। उन्होंने दुनिया को यह स्पष्ट कर दिया कि भारत की महत्वाकांक्षाएं क्षेत्रीय नहीं थीं और न ही यह प्रतिशोधात्मक या विस्तारवादी थी। 1971 के दौरान, उन्होंने सैन्य कमांडरों को अधिकतम महत्व और महत्व दिया और घबराहट या आवेग में कार्य नहीं किया। तत्कालीन अग्रणी विपक्षी नेताओं में से एक अटल बिहारी वाजपेयी ने युद्ध में पाकिस्तान को हराने के लिए इंदिरा गांधी को ‘अभिनव चंडी दुर्गा’ बताया था। वाजपेयी द्वारा इंदिरा गांधी को दुर्गा के रूप में वर्णित करने से कांग्रेस नेता को जीवन से भी बड़ी छवि बनाने में मदद मिली। वास्तव में, इंदिरा गांधी ने स्पष्ट रूप से बाद में अपने मित्र और जीवनी लेखक पुपुल जयकर को बताया कि उन्हें ‘पूरे युद्ध के दौरान और यहां तक कि उससे पहले भी अलौकिक शक्तियों का कुछ आभास हुआ था, उन्हें कुछ अजीब अनुभव हुए थे।’
राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर लड़ाई
उस वक्त की प्रमुख विपक्षी पार्टी सीपीआई का 1964 में विभाजन हो चुका था। वहीं, कांग्रेस के भीतर अंदरूनी घमासान मचा हुआ था। जबलपुर और राउरकेला में देश के विभाजन के बाद के सबसे भीषण सांप्रदायिक दंगे हो चुके थे। 1965 की जंग में पाकिस्तान का साथ पक्ष लेने वाले पश्चिमी जगत ने भारत को मदद रोक दी थी। महंगाई बेतहाशा बढ़ गई थी। बढ़ते राजकोषीय घाटा और तेल के ऊंचे दाम को देखते हुए चौथे आम चुनाव से 7 महीने पहले जून 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रुपये के अवमूल्यन का ऐलान कर दिया था। स्पष्ट है कि चौथा आम चुनाव राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हर मोर्चे पर उथल-पुथल की पृष्ठभूमि में लड़ा गया था।
मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में आई स्वतंत्र पार्टी
1963 में परिसीमन के बाद 1967 में लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़कर 520 हो गई थी। कुल 25 करोड़ वोटरों में से 61.3 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। कांग्रेस करीब 41 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 283 सीटों पर जीत दर्ज की। खास बात यह थी कि सीपीआई को पछाड़कर सी. राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी। उसने 8.67 वोट प्रतिशत के साथ 44 सीटों पर जीत हासिल की। तीसरे नंबर पर भारतीय जन संघ रहा, जिसके खाते में 35 सीटें आईं। सीपीआई 23 सीटों पर सिमट गई, जबकि उसके विघटन के बाद बनी सीपीएम ने 19 सीटों पर जीत हासिल की। डीएमके ने भी 25 सीटों पर परचम लहराकर शानदार प्रदर्शन किया।
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राज्यों पर कांग्रेस की पकड़ हुई ढीली
पहली बार कांग्रेस को 6 राज्यों में सत्ता से हाथ धोना पड़ा, जिनमें तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे अहम राज्य शामिल थे। पिछले आम चुनाव में तमिलनाडु (तत्कालीन मद्रास प्रांत) में 7 सीटें जीतने वाली डीएमके ने इस बार 25 सीटों पर जीत हासिल की। लोकसभा के साथ हुए तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में डीएमके ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल ही कर दिया। कांग्रेस के लिए यह कितना तगड़ा झटका था, यह इसी से पता चलता है कि उसके बाद से पार्टी सूबे की सत्ता में आजतक वापस नहीं आ पाई। इसी तरह, कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में भी बहुत बड़ा झटका लगा, जहां लेफ्ट फ्रंट ने उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। सूबे में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार बनी। तमिलनाडु की तरह ही पश्चिम बंगाल की सत्ता में तब से कांग्रेस आजतक वापस नहीं आ पाई। कांग्रेस की हार का कारण थे दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रम्ह प्रकाश यादव। वह खुद तो लोकसभा चुनाव जीत गए थे, लेकिन अन्य छह सीटों पर अपनी ही पार्टी को हराने के लिए पूरा जोर लगाया था और कांग्रेस दिल्ली की अन्य किसी भी सीट में जीत नहीं हासिल कर पाई थी।
जनसंघ को मिली थी सभी सीटें
इस चुनाव में पहली बार जनसंघ ने दिल्ली में छह सीटें जीती थी। एकमात्र सीट चौधरी ब्रम्ह प्रकाश जीते थे, लेकिन इसमें भी जीत का अंतर कम था। इसी चुनाव में मौजूदा सांसदों के हारने का सिलसिला शुरू हुआ था। कांग्रेस के तीन सांसद हार गए थे। लगातार तीन चुनाव जीतने वाले नवल प्रभाकर को भी चौथे चुनाव में हार झेलनी पड़ी थी। नई दिल्ली से मीर चंद खन्ना, चांदनी चौक से श्याम नाथ को भी हार झेलनी पड़ी थी। सिर्फ चौधरी ब्रम्ग प्रकाश ही चुनाव जीत पाए थे। वह दूसरी बार सांसद बने थे। उन्हें बाहरी दिल्ली लोकसभा सीट से जीत मिली थी, जबकि पहले चुनाव में वह सदर से सांसद बने थे।
जमानत नहीं बचा पाए थे 31 उम्मीदवार
1967 में दिल्ली की सात लोकसभा सीटों में 46 नेताओं ने चुनाव लड़ा था। इनमें से 15 उम्मीदवार ही अपनी जमानत राशि बचा पाए थे। सातों सीटों पर चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों के साथ दूसरे नंबर पर रहने वाले उम्मीदवार और चांदनी चौक में तीसरे नंबर पर रहे उम्मीदवार की जमानत बच गई थी। इसके अलावा अन्य 31 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी।
बागी नायर भी नहीं बचा पाए थे जमानत
सीके नायर पहले और दूसरे चुनाव में बाहरी दिल्ली से सांसद बने थे। वह चौथे चुनाव में भी लड़ना चाहते थे,लेकिन उनको टिकट नहीं मिला। ऐसे में वह बगावत पर उतर आए और निर्दलीय चुनाव लड़ा। हालांकि, जनता ने उनका साथ नहीं दिया और वह तीसरे नंबर पर रहे। उनकी भी जमानत जब्त हो गई थी।
चुनाव से पहले बढ़ी थीं दो सीटें
पहले लोकसभा चुनाव के में दिल्ली में तीन सीट थी, जबकि दूसरे चुनाव में एक सीट बढ़ा दी गई। इसी तरह तीसरे चुनाव से पहले भी एक सीट बढ़ाई गई। इस चुनाव के दौरान दिल्ली में एक बार फिर सीटों की संख्या में इजाफा किया गया और कुल सीटों की संख्या सात पहुंच गई। पूर्वी दिल्ली और दक्षिण दिल्ली नाम से दो नई सीटें बनाई गई थी। दोनों पर जनसंघ के उम्मीदवार जीते थे।
इंदिरा की मनमानी के चलते हारी कांग्रेस
1952 में दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने चौधरी ब्रह् प्रकाश इस चुनाव तक कांग्रेस के कद्दावर नेता बन चुके थे और दिल्ली की सभी सात सीटों पर अपनी पसंद के नेताओं को टिकट दिलाना चाहते थे। इंदिरा गांधी ने उनको तो टिकट दे दिया था, मगर अन्य सीटों पर अपनी मर्जी से टिकट दिए थे। इस कारण चौधरी ब्रह्म प्रकाश नाराज हो गए और वे अन्य छह सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों को हरवाने में लग गए थे। वह अपने मकसद में सफल भी रहे। इस चुनाव के बाद उन्होंने कांग्रेस से नाता भी तोड़ दिया था। इस चुनाव में कांग्रेस पूरे देश में जीती थी, लेकिन दिल्ली में उसे हार का सामना करना पड़ा था।
सन 1967 के लोक सभा चुनाव के समय राजस्थान के झुंझुनू क्षेत्र पर देश भर की नजरें लगी हुई थीं। वहां कांग्रेस के राधेश्याम मुरारका का मुकाबला स्वतंत्र पार्टी के राधाकृष्ण बिड़ला से था। एक फ्रेंच पत्रकार ने उसे दो एरावतों यानी हाथियों के बीच का मुकाबला बताया था। उन अत्यंत धनी हस्तियों के बीच के इस मुकाबले में स्वतंत्र पार्टी के राधाकृष्ण बिड़ला की लगभग 46,000 मतों से जीत हुई।
दो करोड़पतियों के आपस में भिड़ जाने के कारण इस क्षेत्र में देश की ही नहीं बल्कि विदेशी संवाददाताओं की भी नजरें लगी थीं। चुनाव में बिड़ला जीते और मोरारका हारे।बाद में राधा कृष्ण बिड़ला कांग्रेस में शामिल हो गये थे।
पिछले चुनाव में राजस्थान में स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार जितने बड़े पैमाने पर चुनकर आये, उससे राजस्थान धनपतियों की आकर्षण भूमि में बदल गया। उन्हें यह विश्वास है कि वे कांग्रेस को अपदस्थ कर राजस्थान में स्वतंत्र पार्टी के जरिए स्वयं अपनी सरकार बना सकते हैं। जयपुर से लेकर जोधपुर तक और गंगानगर से लेकर कोटा तक राजस्थान की किसी भी सडक पर राजाओं-महाराजाओं और मंत्रियों उप मंत्रियों की चमचमाती, कीमती गाड़ियां दौड़ती नजर आती हैं।
महारानी गायत्री देवी ने तो एक सभा में खुद ही यह कबूल किया कि अगर मैं चाहती तो अपने महल में आराम से रह सकती थी। पर मैं कांग्रेस को परास्त करने के लिए बाहर निकली हूं। राजस्थान में दरअसल दो व्यक्ति चुनाव लड़ रहे हैं।एक हैं मुख्य मंत्री मोहनलाल सुखाड़िया और दूसरी हैं महारानी गायत्री देवी। दोनों ही राजस्थान के इस छोर से उस छोर तक दौरा करते हैं और मतदाताओं के सामने विकल्प पेश करते हैं।महारानी का दौरा तूफानी और मुखर है, श्री सुखाड़िया का दौरा मौन और शायद अधिक ठोस है।
कांग्रेस से टिकट न मिलने पर नायर हो गए थे बागी
पहले व दूसरे लोकसभा चुनाव में बाहरी दिल्ली से कांग्रेस के सांसद चुने गए सीके नायर ने इस चुनाव में कांग्रेस से टिकट मांगा था, लेकिन कांग्रेस ने उनको टिकट नहीं दिया था। इस कारण उन्होंने कांग्रेस से बगावत कर दी थी और वह बाहरी दिल्ली क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़े थे। इस चुनाव में वह तीसरे स्थान पर रहे थे। उनकी जमानत भी नहीं बच पाई थी।